12 मई 2016 को यह खबर अखबारों की सुर्खियां बनी कि 2008 के मालेगांव बम धमाकों के मामले में नेशनल इनवेस्टिगेशन एजेंसी (एनआइए) ने तय किया है कि वह मुंबई की अदालत में जो चार्ज शीट दाखिल करने जा रही है, उसमें आरोपियों में साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर का नाम नहीं रहेगा। इसी के साथ यह भी संकेत दिया गया कि महाराष्ट्र के पूर्व एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे द्वारा की गयी जांच त्रुटिपूर्ण थी, उन्होंने दूसरे प्रमुख आरोपी कर्नल प्रसाद पुरोहित को फंसाने के लिए फर्जी साक्ष्यों का सहारा लिया और तमाम गवाहों से डरा धमका कर बयान लिए। अखबारों में प्रकाशित खबरों के अनुसार एनआइए का मानना है कि 2008 में पुरोहित की गिरफ्तारी के समय देवलाली आर्मी कैंप स्थित उसके निवास में एटीएस ने ही विस्फोटक (आरडीएक्स) रखे थे। एनआइए ने यह भी तय किया है कि पुरोहित तथा अन्य आरोपियों के खिलाफ ‘महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण कानून’ (मकोका) की धाराओं को निरस्त कर दिया जायेगा और अब उन पर मुंबई की यूएपीए अदालत में आरोप पत्र दाखिल किया जायेगा। 2008 में जब जांच दल एक–एक सूत्र को पकड़ते हुए साध्वी प्रज्ञा तक पहुंचा था उस समय भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी और मौजूदा गृह मंत्री राजनाथ सिंह सहित सभी छोटे बड़े नेताओं ने इसका खूब विरोध किया था। अब इन आरोपियों को क्लीन चिट देने का समय आ गया है जिसकी कवायद मोदी सरकार के सत्ता में आते ही शुरू हो गयी थी। याद करें इस मामले की सरकारी वकील रोहिणी सालियान के 24 जून 2015 के वक्तव्य को जिसमें उन्होंने एक भेंट वार्ता में यह रहस्योद्घाटन किया था कि मोदी सरकार के गठन के बाद से ही किस तरह उन पर दबाव डाला जा रहा है कि वह इन आरोपियों के मामले में ‘नरमी’ दिखायें। 2009 में प्रकाशित इस लेख को आज फिर से प्रकाशित करने का मकसद उन घटनाओं और उन हालात की रोशनी में सरकार के हाल के फैसलों को समझना है ताकि सही विश्लेषण तक पहुंचा जा सके (संपादक)
मई 2008 में देश के अंदर घटित अनेक आतंकवादी घटनाओं का विश्लेषण करते हुए ‘अवामी भारत’ मुंबई के संयोजक फिरोज मीठीबोरवाला और किशोर जगताप ने लिखा था– ‘हम जनता से अनुरोध् करना चाहते हैं कि वह आतंकवाद की इस महाविपदा के प्रति जागरूक हो। यह हमारे समय की राजनीतिक और सामाजिक चुनौती बन गया है। इसने अभिजात्यवर्ग द्वारा भारत के व्यापक जनसमुदाय को नियंत्रित करने की नयी प्रणाली का रूप ले लिया है और हमें इस खतरे का मिलजुल कर मुकाबला करना चाहिए। आतंकवादी हमलों का शिकार कोई राजनीतिक नेता नहीं होता है– यहां तक कि उस समय भी नहीं जब संसद पर हमला किया जाता है। लेकिन हम मंदिरों, मस्जिदों, गिरिजाघरों, गुरुद्वारों और बुद्ध विहारों में मारे जाते हैं। हम बसों में, ट्रेनों में और टैक्सियों में मरते रहते हैं। हम जानते हैं कि वे झूठ बोल रहे हैं, मीडिया झूठ बोल रहा है और पुलिस भी वही कर रही है। हमें इनके जवाब ढूंढने की जरूरत है लेकिन इसके लिए हमें कुछ बुनियादी सवाल भी उठाने की जरूरत है और जरूरत है उस दायरे को चुनौती देने की जिसमें बंधे बंधाये ढंग से हम सोचने के लिए, बल्कि न सोचने के लिए मजबूर रहते हैं।’ इस निष्कर्ष तक पहुंचने से पहले इन दोनों कार्यकर्ताओं ने देश के अंदर पिछले कुछ वर्षों में विभिन्न स्थानों में हुए आतंकवादी हमलों का विश्लेषण किया था।
आज समूचा माहौल कुछ ऐसा बना दिया गया है जिसमें ‘आधिकारिक’ विवरण से अलग सोचने के प्रयास मात्र को न केवल सत्ता के भागीदार पक्ष–प्रतिपक्ष द्वारा बल्कि मीडिया के एक बहुत बड़े हिस्से द्वारा भी देशद्रोह मान लिया जाता है। सवाल उठाना राष्ट्रविरोधी काम मान लिया गया है। संदेह व्यक्त करना दुश्मन को मदद करने जैसा हो गया है। मुंबई की घटनाओं पर जब अंतुले ने कुछ सवाल उठाये तो उसे राजनीति से प्रेरित कह कर खारिज कर दिया गया। इतिहासकार अमरेश मिश्र ने जब मुंबई की घटनाओं के पीछे सीआईए–मोसाद–उग्र हिंदू संगठन का गठजोड़ कहा तो उसे ‘विकृत सोच’ बता दिया गया। किसी राजनेता ने सवाल उठाया तो उसे ‘तुष्टिकरण’ की नीति पर चलने वाला कह दिया गया। कई चैनलों ने चीख चीख कर सवाल उठाने वालों के खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्रवाई की मांग की। हालत यह हो गयी कि देश के एक प्रमुख अखबार ने अपनी फॉलोअप स्टोरी देने का साहस नहीं किया जिससे मालेगांव धमाकों की जांच कर रही एटीएस टीम के सदस्यों के सफाये पर रोशनी पड़ सकती थी।
यह एक इत्तफाक ही है कि मुंबई हमले से तीन दिन पूर्व 23 नवंबर को ‘नई दुनिया’ ने प्रथम पृष्ठ पर विनोद अग्निहोत्री की एक लंबी रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसमें बताया था कि किस प्रकार ‘मुस्लिम आतंकवादी संगठनों के समानांतर हिंदू आतंकवादी संगठन’ बनाने में अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए और इस्राइली खुफिया एजेंसी मोसाद के साथ ही कुछ अन्य विदेशी एजेंसियां सक्रिय हो गयीं हैं। इसमें यह भी कहा गया था कि हेमंत करकरे के नेतृत्व में मुंबई एटीएस की टीम ने मालेगांव धमाकों के आरोपियों– साध्वी प्रज्ञा सिंह, सेनाधिकारी श्रीकांत पुरोहित और स्वघोषित शंकराचार्य दयानंद पांडे की गिरफ्तारी से जुड़ी कड़ियों को जितनी कुशलता से पकड़ा है उससे कई रहस्यों पर से पर्दा उठ सकता है। इसी अखबार ने फरवरी 2007 में यहूदियों के सबसे बड़े धर्मगुरु (प्रधान रब्बीद्) योना मेट्जर इस्राइल की भारत यात्रा का जिक्र करते हुए बताया था कि इनकी मुलाकात राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंचालक के एस सुदर्शन, विश्व हिंदू परिषद के अशोक सिंघल, विष्णु हरि डालमिया आदि से हुई थी। रिपोर्ट में बताया गया था कि यहूदी प्रमुख रब्बी ने रात में लालकृष्ण आडवाणी के घर पर भोज किया, कि राजग सरकार के जमाने में उप–प्रधानमंत्री आडवाणी ने इस्राइल यात्रा के दौरान मोसाद के प्रमुख से उनके कार्यालय में जाकर मुलाकात की आदि।
जिन लोगों ने मुंबई की घटनाओं पर सवाल उठाये उनमें से किसी ने यह नहीं कहा कि इन हमलों के पीछे पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई अथवा लश्कर–ए–तैयबा का हाथ नहीं है। अमरेश मिश्र ने तो साफतौर पर कहा कि काफी समय से मोसाद और आईएसआई का कट्टरवादी खेमा मिलजुल कर काम कर रहा है फिर भी संदेह उठाने वालों पर आरोप लगाया गया कि वे पाकिस्तान का बचाव कर रहे हैं। क्या यह सवाल उठना स्वाभाविक नहीं था कि ऐसे समय जब एटीएस मुंबई की टीम आतंकवाद के एक सर्वथा नये रूप को उजागर करने वाली हो उसी समय यह हमला क्यों किया गया? क्या एटीएस मुंबई की जांच टीम के सफाये का फौरी लाभ उन लोगों को नहीं मिला जो मालेगांव सहित पिछले चार–पांच वर्षों की आतंकवादी घटनाओं में उग्र हिंदू संगठनों के शामिल होने की बात को एक साजिश कह रहे थे? सरकारी/आधिकारिक वक्तव्यों अथवा विवरणों पर संदेह करने का पर्याप्त कारण क्या इसलिए नहीं है कि अतीत की अनेक आतंकवादी कार्रवाइयों में लिप्त मानकर मुस्लिम संगठनों के लोगों को प्रताड़ित किया गया जबकि एटीएस मुंबई की जांच के प्रारंभिक नतीजों से इन घटनाओं में हिंदू उग्रवादी संगठनों के शामिल होने का पता चलता है? क्या इस तरह के आधे अधूरे निष्कर्षों के आधर पर इस उपमहाद्वीप को युद्ध की आग में झोंकने का माहौल तैयार करना उचित है? इन सवालों का उठना स्वाभाविक है और इन सवालों से रू–ब–रू होने की बजाय सवाल उठाने वालों को ही कठघरे में खड़ा करना सही अर्थों में राष्ट्र विरोधी कार्रवाई है।
2006 में नांदेड़ (महाराष्ट्र) बम धमाकों की जांच के समय महाराष्ट्र एटीएस प्रमुख के पद पर के. पी. एस. रघुवंशी थे जिन्होंने अपनी चार्जशीट में कहा था कि इन धमाकों के पीछे विश्व हिंदूपरिषद, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बजरंग दल का हाथ था। रघुवंशी ने आरोप पत्र में परबनी और पुरना के बम धमाकों में भी इन संगठनों का हाथ बताया था। उन्होंने यह भी कहा था कि पुणे में इन तत्वों ने प्रशिक्षण शिविर भी चलाये थे जिनमें पाइप बम बनाने का प्रशिक्षण दिया गया था। 15 नवंबर को ‘तहलका’ में प्रकाशित इंटरव्यू में रघुवंशी ने कहा है कि पिछले धमाकों की तरह मालेगांव धमाकों में भी बाइक का इस्तेमाल किया गया है। फर्क इतना है कि इस बार आरडीएक्स का भी इस्तेमाल हुआ है और ज्यादा उन्नत हथियारों और तकनीकों को प्रयोग में लाया गया है। इस बार भी धमाकों का निशाना मुसलमानों को बनाया गया है। सारे तौरतरीकों को देखने से रघुवंशी ने आशंका व्यक्त की कि मालेगांव धमाकों में भी उन्हीं तत्वों का हाथ हो सकता है जिन्होंने नांदेड़, परभनी और पुरना में विस्फोट किये थे।
रघुवंशी के बाद हेमंत करकरे इस पद पर आये और मालेगांव की जांच के सिलसिले में उन्हें एक के बाद एक ऐसे सूत्र मिलते गये जिससे जांच टीम पुणे की एक संस्था ‘अभिनव भारत’ तक पहुंच गयी। इस संस्था की प्रमुख हिमानी सावरकर हैं जो नाथूराम गोडसे के भाई गोपाल गोडसे की पुत्री और कट्टरपंथी हिंदू विनायक दामोदर सावरकर के भांजे दिवंगत अशोक सावरकर की पत्नी हैं। नाथूराम गोडसे को 15 नवंबर 1949 को गांधी जी की हत्या के आरोप में फांसी दी गयी थी। अभिनव भारत प्रतिवर्ष इस दिन ‘हुतात्मा नाथूराम गोडसे इच्छापत्र न्यास’ के बैनर तले उनकी पुण्य तिथि मनाता है जिसमें ‘अखंड भारत’ के लिए संकल्प लिया जाता है। इस बार भी 15 नवंबर 2008 को पुणे के शिवाजी नगर में एक समारोह आयोजित किया गया जिसमें हिमानी सावरकर ने सभी हिंदुओं से अपील की कि वे मालेगांव धमाकों में पकड़े गये लोगों की मदद करें। उन्होंने कहा कि इन आरोपियों को कानूनी मदद देने के लिए वे ‘हिंदू लीगल एड फर्म’ के नाम से ड्राफ्ट अथवा चेक भेजें।
उधर इसी दिन यानी 15 नवंबर को पानीपत में आयोजित एक समारोह में भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कहा कि अगर केंद्र सरकार ने धार्मिक नेताओं के खिलाफ अपना अभियान बंद नहीं किया तो वे इस मामले को सड़क पर लेकर जायेंगे। इस मंच पर योगगुरु रामदेव, अशोक सिंघल, साध्वी ऋतम्भरा, और राजनाथ सिंह के अलावा ढेर सारे धार्मिक संगठनों के नेता मौजूद थे। खराब मौसम की वजह से विमान उड़ने में दिक्कत पैदा हो गयी और आडवाणी नहीं पहुंच सके। साध्वी प्रज्ञा सिंह के मामले का जिक्र करते हुए रामदेव ने कहा कि सत्ता का इस्तेमाल आज उन लोगों द्वारा किया जा रहा है जिन्हें या तो जेल में होना चाहिए था या फांसी मिल जानी चाहिए थी। सभी वक्ताओं का यही कहना था कि हिंदू आतंक के नाम पर हिंदुओं को निशाना बनाया जा रहा है।
मालेगांव धमाकों की जांच के दौरान यह खतरनाक तथ्य पहली बार उजागर हुआ है कि सेना के न केवल अवकाशप्राप्त बल्कि कार्यरत अधिकारी भी हिंदुत्ववादी संगठनों की ओर से आतंकी गतिविधियों में संलिप्त हैं। जो खबरें सामने आयी हैं उनके अनुसार लेफ्टिनेंट कर्नल श्रीकांत पुरोहित से मिली जानकारी के आधार पर ही अभिनव भारत से संबंधों की जांच के सिलसिले में सेना के पांच अधिकारियों से पूछताछ जारी है। 26 नवंबर को यानी मुंबई हमले में मारे जाने से महज एक दिन पूर्व हेमंत करकरे के नेतृत्व में महाराष्ट्र एटीएस की टीम ने दिल्ली में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम. के. नारायणन तथा वरिष्ठ सैनिक अधिकारियों से विचार विमर्श किया।
नासिक की अदालत में जब एटीएस ने आरोप लगाया कि समझौता एक्सप्रेस में हुए विस्फोट में पुरोहित का हाथ था तो सनसनी फैल गयी। यह इतना गंभीर आरोप था जिसे पर्याप्त प्रमाण के बिना नहीं कहा जा सकता था। स्मरणीय है कि 18 फरवरी 2007 को दिल्ली से तकरीबन 90 कि.मी. दूर हरियाणा की सीमा से गुजरते हुए समझौता एक्सप्रेस में विस्फोट हुआ था जिसमें कुछ पाकिस्तानी नागरिकों सहित 68 यात्री मारे गये थे। पुरोहित उन दिनों नासिक के देवलाली आर्मी कैंप में तैनात थे और उनकी देखरेख में 60 कि.ग्रा. आरडीएक्स रखा गया था। विशेष सरकारी वकील अजय मिसर ने अदालत को बताया कि पुरोहित ने कुछ आरडीएक्स की सप्लाई भगवान दास नामक व्यक्ति को की जो समझौता एक्सप्रेस के मामले में आरोपी है और फिलहाल फरार है। एटीएस के अनुसार विस्फोट से पूर्व इस साजिश को अंजाम देने के सिलसिले में भोपाल, जबलपुर और फरीदाबाद में जितनी भी बैठकें हुई थीं उसमें स्वघोषित शंकराचार्य दयानंद पांडेय शामिल था जिसे उत्तर प्रदेश के आतंकवाद विरोधी दस्ते ने कानपुर से गिरफ्तार किया था। पांडे के माध्यम से ही तमाम गैर कानूनी तरीके से इन कामों के लिए पैसे जुटाए गए थे। इन बैठकों में पुरोहित के अलावा साध्वी प्रज्ञा सिंह और अभिनव भारत की भोपाल शाखा के समीर कुलकर्णी मौजूद थे।
समझौता एक्सप्रेस में हुए विस्फोट की कड़ी दर कड़ी ढूंढती हुई हरियाणा पुलिस इंदौर तक पहुंच गयी थी। ट्रेन में विस्फोट के लिए जिन सूटकेसों का इस्तेमाल हुआ था और वे जिस दुकान से खरीदे गये थे वहां तक भी यह टीम पहुंच गयी। बम में इस्तेमाल तमाम चीजें जहां से खरीदी गयी थीं लगभग उन सब दुकानों का इस टीम ने पता कर लिया पर इससे आगे वह नहीं बढ़ पायी। लेकिन अब साध्वी प्रज्ञा सिंह और ले. कर्नल पुरोहित से पूछताछ के बाद यह कड़ी कुछ आगे बढ़ी है।
इंडियन एक्सप्रेस (18 नवंबर, 2009) में प्रकाशित प्रणब सामंता की रिपोर्ट के अनुसार अजमेर तथा समझौता एक्सप्रेस में हुए विस्फोटों के बारे में गहन छानबीन के बाद सुरक्षा एजेंसियां अचानक कम से कम पांच राज्यों में हुए विस्फोटों की नये सिरे से जांच करने में जुट गयीं। एक दिलचस्प तथ्य यह सामने आया कि समझौता एक्सप्रेस के बम से भरे सूटकेसों और हैदराबाद के मक्का मस्जिद तथा अजमेर शरीफ में इस्तेमाल किये गये टिन के डब्बों की आर्मिंग डिवाइस एक जैसी थी। यह एक छोटा ताला था जो इन बक्सों में लगाया गया था। इसमें चाबी घुमाते ही बम सक्रिय हो जाते। इसके बाद किसी डिजिटल टाइमर अथवा रिमोट कंट्रोल डिवाइस मसलन मोबाइल फोन के जरिये विस्फोट किया जा सकता था। इसके अलावा और भी समानताएं थीं। इन तीनों कांडों में बिना फटे हुए जो बम बरामद हुए उनमें एक ही तरह के ताले पाये गये। इसी अखबार में 26 नवंबर को प्रकाशित वाइ.पी. राजेश की रिपोर्ट के अनुसार मई 2007 को मक्का मस्जिद और अक्टूबर 2007 को अजमेर शरीफ में इस्तेमाल दोनों बम 4 मई 2007 के तेलुगु अखबार ‘आंध्रज्योति’ में लपेट कर रखे गये थे।
मालेगांव धमाकों की छानबीन के दौरान ही हेमंत करकरे की टीम को कुछ ऐसे सुराग मिले जिनसे कानपुर, नांदेड़ (महाराष्ट्र) और कन्नूर (केरल) में हुए विस्फोटों के अनसुलझे मामलों को हल करने की दिशा मिली। कानपुर के राजीवनगर में 24 अगस्त को हुए एक विस्फोट में बजरंग दल के दो कार्यकर्ता भूपेंद्र सिंह चोपड़ा और राजीव मिश्र उस समय मारे गए जब वे बम बनाने की कोशिश में लगे थे। चोपड़ा को पुलिस ने बाबरी मस्जिद गिराये जाने के बाद हुए दंगों के सिलसिले में 1992 में गिरफ्तार किया था। घटनास्थल से पुलिस को भारी मात्रा में विस्फोटक मिलने के साथ ही फिरोजाबाद का एक नक्शा मिला जिसमें पांच स्थानों को चिन्हित किया गया था। पुलिस ने अनुमान लगाया कि उन मुस्लिम आबादी वाले इलाकों में विस्फोट की योजना थी।
लगभग दो वर्ष पूर्व 6 अप्रैल 2006 को नांदेड़ में भी इसी तरह की घटना हुई थी जिसमें दो लोग मारे गये थे। यह विस्फोट आरएसएस के कार्यकर्ता और अवकाश प्राप्त इंजीनियर लक्ष्मण राजकोंदवार के घर पर हुआ था। पुलिस की छानबीन के अनुसार यहां जो बम बनाये जा रहे थे उन्हें औरंगाबाद की एक मस्जिद के बाहर जुमे की नमाज के बाद रखा जाना था। केरल के कन्नूर में 10 नवंबर को फिर बम बनाते समय आरएसएस के दो कार्यकर्ताओं दिलीपन उर्फ दिलीश और पी. प्रतापन को जान गंवानी पड़ी। इनके मकान से पुलिस को जो कागजात मिले उनमें उत्तर प्रदेश के कुछ हिंदुत्ववादी संगठनों के नेताओं के नाम पते थे। मालेगांव की जांच के दौरान मिले सुरागों ने इन मामलों की जांच को भी एक नयी दिशा दे दी।
मालेगांव और इससे जुड़ी घटनाओं ने इस बहुप्रचारित मिथक को तोड़ने में मदद पहुंचाई कि आतंकवादी घटनाओं के पीछे हमेशा मुस्लिम संगठनों का हाथ रहा है। आमतौर पर सुरक्षाबलों ने इस धारणा को काफी प्रचारित किया है। पिछले दिनों मुंबई से प्रकाशित एक रिपोर्ट में यह देखा गया कि किस प्रकार धुले के सांप्रदायिक दंगों को भड़काने के आरोप में बंद स्थानीय मुस्लिम नेता शाबिर खान को पुलिस रिमांड में दिये जाने की मांग करते समय अतिरिक्त सेशन जज ए. बाविस्कर की अदालत में पुलिस महकमे ने यह लिखकर दिया था कि ‘यह एक स्थापित तथ्य है कि देश के अंदर घटित सभी आतंकवादी घटनाओं के पीछे मुसलमानों का हाथ है।’ हालांकि महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री आर. आर. पाटिल ने इस समाचार का खंडन किया था लेकिन एक राष्ट्रीय दैनिक ने पुलिस के आवेदन को हूबहू छापकर पाटिल की बात गलत साबित कर दी।
18 मई 2007 को हैदराबाद के मक्का मस्जिद में हुए धमाकों के बाद हैदराबाद की पुलिस ने 70 मुस्लिम युवकों को गिरफ्तार किया जिनमें से खुद सरकारी रिपोर्ट के अनुसार 15 को घोर अमानवीय यातनाएं दी गयीं। अब आंध्र प्रदेश सरकार यह मान रही है कि वे लोग बेकसूर थे और इन यातनाओं की भरपाई के लिए उसने पीड़ितों को 30 हजार से लेकर 80 हजार रुपये तक के कर्ज के ‘पुनर्वास पैकेज’ की घोषणा की है ताकि इन पैसों से वे ऑटो रिक्शा खरीद सकें। इनमें से कइयों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा और सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा। मुंबई एटीएस के हवाले से अब यह खबर आ रही है कि मक्का मस्जिद के धमाकों में हिंदू संगठनों का ही हाथ था।
मुंबई एटीएस की जांच टीम के खिलाफ हिंदू संगठनों का गुस्सा स्वाभाविक है क्योंकि इस जांच ने उन्हीं के द्वारा प्रचारित इस्लामी आतंकवाद के मिथक को चूर चूर कर दिया। नासिक स्थित ‘भोंसला मिलिट्री स्कूल’ ने बाकायदा यह स्वीकार किया कि सन् 2001 में इसके नागपुर कैंपस में बजरंग दल का एक शिविर लगाया गया था। इस स्कूल की संचालक संस्था ‘सेंट्रल हिंदू मिलिट्री एजूकेशन सोसाइटी’ के सचिव दिवाकर कुलकर्णी का यह बयान भी देखने में आया जिसमें उन्होंने सपफाई दी थी कि उनके स्कूल के पास काफी जगह है इसलिए कभी–कभार अन्य संगठनों को वह इसका इस्तेमाल करने देते थे। कुलकर्णी ने यह भी कहा कि उन्हें पूरा विश्वास है कि इस शिविर में विस्फोटक अथवा बम बनाने का प्रशिक्षण नहीं दिया गया। एटीएस के पास जो जानकारी है उसके अनुसार यह 40 दिनों का प्रशिक्षण शिविर था जिसमें मिथुन चक्रवर्ती नामक एक व्यक्ति ने, जो संभवतः सेना से संबद्ध था, विस्फोटक बनाने का प्रशिक्षण दिया।
एक अन्य प्रशिक्षण शिविर का आयोजन राकेश धवड़े ने किया था जो अभिनव भारत से संबद्ध है और मालेगांव धमाकों का आरोपी है। लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित तथा साध्वी प्रज्ञा सिंह से उसके घनिष्ठ संबंध हैं। यह अनायास नहीं है कि 16 नवंबर को नासिक की अदालत में जब इन आरोपियों को पेश किया गया तो कर्नल पुरोहित के समर्थन में ‘हिंदू राष्ट्र सेना’ के लोगों ने प्रदर्शन किया। ये लोग अदालत के बाहर नारे लगा रहे थे– ‘पुरोहित आगे बढ़ो, हम तुम्हारे साथ हैं’, ‘मालेगांव तो झांकी है, और बहुत कुछ बाकी है’। पुलिस ने 350 प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार किया। इससे पहले साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर की पेशी के समय शिवसेना और भाजपा के कार्यकर्ताओं ने भी अदालत के बाहर प्रदर्शन किया था।
न केवल हिंदूवादी संगठन बल्कि भाजपा के शीर्ष नेताओं ने जांच को जिस तरह प्रभावित करने का प्रयास किया वह चिंता की बात है। भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने 18 नवंबर को छत्तीसगढ़ की यात्रा के दौरान कहा कि महाराष्ट्र एटीएस टीम ‘राजनीति से प्रेरित और गैर पेशेवर ढंग से काम कर रही है।’ उन्होंने इस टीम को बदलने की मांग की। आडवाणी का कहना था कि कांग्रेस की इन हरकतों से पाकिस्तान के जेहादियों को बढ़ावा मिलेगा और दोनों देशों के बीच हाल में होने वाली बातचीत पर भी इसका बुरा असर पड़ेगा। सागर (मध्य प्रदेश) की चुनावी सभा में अफजल गुरू को फांसी न दिये जाने पर सरकार की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा कि ‘अगर इस आतंकवादी का नाम आनंद मोहन अथवा आनंद सिंह रहा होता तो अब तक फांसी दे दी गयी होती।’ उन्होंने 23 नवंबर को इंदौर की एक चुनावी सभा में कहा कि ‘जब उन्हें कोई नहीं मिला तो उन लोगों ने साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को पकड़ लिया।’
भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह का मानना है कि इस जांच के पीछे बहुत बड़ा षडयंत्र काम कर रहा है। एन.डी.टी.वी. को दिये गये एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि यह मत भूलिये कि महाराष्ट्र में कांग्रेस और एन.सी.पी. की मिलीजुली सरकार है और इस षडयंत्र में उसका हाथ है। उनसे जब सवाल किया गया कि अगर जांच में उनका शामिल होना साबित होता है और उन्हें सजा दी जाती है तो आपको आपत्ति तो नहीं होगी? इसके जवाब में उन्होंने कहा कि इस प्रश्न में ‘अगर’ शब्द लगाया गया है इसलिए मैं इसका जवाब देने को तैयार नहीं हूं क्योंकि मैं नहीं मानता कि वे लोग इसमें शामिल हैं। मैं नही समझता कि वे किसी तरह की हिंसा में शामिल हो सकते हैं। 21 नवंबर को गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन्दौर की एक चुनावी सभा में सरकार पर आरोप लगाया कि वह सेना की छवि खराब कर और सुरक्षा बलों के मनोबल को गिराकर वोट बैंक की राजनीति कर रही है। उन्होंने कहा कि ‘पाकिस्तान जो काम 20 वर्षों में नहीं कर सका उसे हिंदुस्तान की सरकार ने 20 दिनों में कर दिखाया।’
21 नवंबर को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम.के. नारायणन को आडवाणी से बातचीत के लिए भेजा जिसमें नारायणन ने मालेगांव से जुड़े कुछ तथ्यों की जानकारी दी। दोनों के बीच क्या बातचीत हुई इसका ब्यौरा तो नहीं आया लेकिन इसके बाद राजनाथ सिंह की भाषा बदल गयी। 26 नवंबर को उन्होंने कहा कि ‘मालेगांव धमाकों के मामले में मेरी पार्टी किसी का पक्ष नहीं लेना चाहती। भाजपा इसकी जांच में किसी भी तरह का हस्तक्षेप नहीं चाहती हालांकि हम यह भी चाहते हैं कि एटीएस साधु–संतों और सेना के अफसरों को परेशान न करे।’
लेकिन इस समय तक हेमंत करकरे काफी परेशान हो चुके थे और उनकी टीम बहुत हताशा का अनुभव कर रही थी। एक तरफ तो भाजपा नेताओं का प्रहार और दूसरी तरफ गुमनाम धमकियां। 25 नवंबर को पुणे में किसी अज्ञात व्यक्ति ने पुलिस को फोन कर कहा कि ‘एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे दो तीन दिनों के अंदर एक बम धमाके में मारे जायेंगे।’ पुलिस ने जब पता किया तो यह फोन सहकार नगर क्षेत्र के एक पीसीओ से किया गया था। इससे पहले एटीएस की ओर से काम कर रहे विशेष सरकारी वकील अजय मिसर को भी फोन पर धमकी मिली थी कि ‘हम तुम्हारा, हेमंत करकरे का और मोहन कुलकर्णी का गेम करेंगे।’ उन्होंने शहर के पुलिस चीफ हिमांशु राय को उस पीसीओ के नंबर सहित यह जानकारी भी दी थी। 26 नवंबर की रात में हेमंत करकरे और उनकी टीम का सफाया हो गया।
करकरे ने अवकाशप्राप्त वरिष्ठ पुलिस अधिकारी जूलियो रिबेरो से अपनी हत्या से एक दिन पूर्व भेंट की थी और उनसे अपनी पीड़ा का जिक्र किया था। रिबेरो ने एक समाचार एजेंसी को फोन पर बताया कि ‘करकरे काफी परेशान थे। उन्हें शिवसेना की चिंता नहीं थी, वह भाजपा के रवैये से ज्यादा चिंतित थे। रिबेरो का कहना था कि करकरे ऐसे व्यक्ति नहीं थे जो किसी राजनैतिक दबाव में काम करते। लोगों ने उन पर राजनीति से प्रेरित होने का आरोप लगाया। कोई भी व्यक्ति इतने सारे तथ्यों के उजागर होने पर झूठा मामला कैसे बना सकता है।’ रिबेरो के अनुसार करकरे के पास कुछ ऐसी जानकारियां पहुंच गयी थीं जिन्हें प्रकाश में लाने से कई और रहस्य उजागर हो सकते थे। मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले से महज दो घंटे पूर्व करकरे ने महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री आर.आर. पाटील से भेंट की और कहा कि वह इस्तीफा देना चाहते हैं क्योंकि इतने तनाव और राजनीतिक दबाव में काम करना संभव नहीं है। पाटिल ने उन्हें समझा कर लौटा दिया।
इन सारी परिस्थितियों को देखते हुए अगर सवाल पैदा होते हैं तो आश्चर्य क्या!