चुनावी राजनीति के इतिहास में जब भी बिहार के बेगूसराय का जिक्र होता है, तो उसे अक्सर कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआइ) का गढ़ बता दिया जाता है। गढ़ पुराने ज़माने के राजा–महाराजाओं के सुरक्षित निवास स्थान के लिए प्रयोग में लाया जाता था, जिसके चारों तरफ बहुत ऊंची और मोटी दीवार हो। बाद के दिनों में इस सामंती शब्दावली को चुनावी राजनीति के जातिगत और धार्मिक क्षत्रपों द्वारा अपनी राजनीतिक सत्ता की सुरक्षा के बतौर खूब इस्तेमाल किया जाने लगा। किसी भी चुनावी इलाक़े को ‘गढ़’ के बतौर देखना लोकतांत्रिक राजनीति के लिहाज से अलोकतांत्रिक होगा।
मामला हालांकि केवल भाषा का नहीं है, ‘गढ़’ से निकल रहे आशय का भी है। जाने–अनजाने बेगूसराय को सीपीआइ का ‘गढ़’ कहना कितना उपयुक्त है? क्या बेगूसराय के किसी चौराहे या गांव में पहुंचकर कथित ‘गढ़’ की तपिश को महसूस किया जा सकता है? आखिर बेगूसराय के चुनावी इतिहास में कम्युनिस्टों की ऐसी कौन सी भूमिका रही जो उसे उनका ‘गढ़’ बनाती हो? जबकि स्वतंत्र भारत में 1952 से लेकर अब तक हुए लोकसभा चुनावों में बेगूसराय से सीपीआई मात्र एक बार ही चुनाव में जीत हासिल कर पायी है?
इसके ठीक उलट बिहार के भोजपुर क्षेत्र को रखकर देखिए। आरा के चुनावी इतिहास में जाइए। आप पाएंगे कि बेगूसराय में पहला वामपंथी उम्मीदवार कांग्रेस विधायक का पुत्र था जबकि भोजपुर में महादलित जाति से ताल्लुक रखने वाले कामरेड रामनरेश राम थे, जिनके सामने राजनीतिक और सामजिक तौर पर भीषण चुनौतियां तो थीं ही, सवर्ण जातियों के वर्चस्व का बड़ा अवरोध भी था। यह अवरोध बेगूसराय में नदारद था।
संयोग से इस बार बेगूसराय से सीपीआइ उम्मीदवार कन्हैया कुमार खड़े हैं तो आरा की लोकसभा सीट से भाकपा (माले) के राजू यादव प्रत्याशी हैं। जाहिर है, भाकपा (माले) की राजनीतिक आयु भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से काफी छोटी है लेकिन आरा की कम्युनिस्ट विरासत बेगूसराय के मुकाबले कहीं ज्यादा समृद्ध और विविध है। बिहार में बेगूसराय और भोजपुर के कम्युनिस्ट मॉडल के बीच फ़र्क की जड़ें आज़ादी के दौर तक जाती हैं। चूंकि बेगूसराय में कन्हैया कुमार के समर्थन में देश भर से वाम रुझान वाले बौद्धिकों की भीड़ जुटी है जबकि राजू यादव की उम्मीदवारी वैसी लोकप्रियता हासिल नहीं कर सकी है, लिहाजा दोनों लोकसभा सीटों और क्षेत्रों के बीच के फ़र्क को कम्युनिस्ट आंदोलन के आईने में समझना बहुत ज़रूरी है। आइए, क्रमश: बेगूसराय और आरा (भोजपुर) के राजनीतिक इतिहास के माध्यम से इसे समझने की कोशिश करते हैं।
बेगूसराय का सवर्ण संसदीय वाम इतिहास
बेगूसराय से पहली बार 1967 में योगेंद्र शर्मा ने लोकसभा चुनाव में जीत हासिल की थी। दूसरी बार 1996 में निर्दलीय रमेन्द्र कुमार ने कांग्रेस के कृष्णा शाही को हराया था। कृष्णा शाही बेगूसराय की कांग्रेस की दिग्गज नेताओं में मानी जाती रही हैं। कहा जाता है कि 1996 में रमेन्द्र कुमार गलती से पार्टी का चुनाव चिह्न जमा नहीं करा पाये इसलिए चुनाव आयोग ने उन्हें निर्दलीय प्रत्याशी माना। पार्टी से जुड़े लोग हालांकि रमेन्द्र कुमार को सीपीआइ का ही सदस्य बताते हैं। इस तरह से देखा जाए तो बेगूसराय लोकसभा सभा से सीपीआई मात्र एक बार चुनाव जीत पायी और तीन बार दूसरे स्थान पर रही।
आइए, अब उस लोकसभा सीट पर नज़र दौड़ाते है जो 1977 से लेकर 2004 के लोकसभा चुनाव तक अस्तित्व में रही, लेकिन 2008 में हुए परिसीमन के बाद बेगूसराय लोकसभा का अंग बन गई। उस लोकसभा सीट का नाम है बलिया। इसमें पांच विधानसभा सीटें हुआ करती थीं। इसी बलिया लोकसभा सीट से 1977 में सीपीआई के सूर्य नारायण सिंह ने कांग्रेस उम्मीदावर चंद्रभानु देवी को लगभग दो हजार वोटों से हराया था। बेगूसराय के स्थानीय निवासी और राजनीति पर पैनी नज़र रखने वाले अमित कुमार बताते हैं कि इसी नेता ने सीपीआई को मजबूती से यहां स्थापित किया था।
सूर्यनारायण सिंह ने 1980 के बाद 1989 और 1991 में हुए लोकसभा चुनाव में जीत हासिल की। 1996 में हुए लोकसभा चुनाव में पार्टी ने उम्मीदवार बदल दिया और शत्रुघ्न प्रसाद सिंह को अपना उम्मीदवार बनाया और लोकसभा में जीत हासिल की। फिलहाल, बेगूसराय लोकसभा सीट के अंतर्गत चिरिया बरियारपुर, बछवाड़ा, तेघड़ा, मटिहानी, साहेबपुर कामाल, बेगूसराय और बखरी समेत सात विधानसभा सीटें आती हैं।
बखरी विधानसभा से 1967 और 1969 में यहां से सीपीएम के युगल किशोर शर्मा विधानसभा पहुंचे। इसके बाद 1972 से 1980 तक यहां से सीपीआइ के रामचंद्र पासवान तीन बार विधायक बनकर विधानसभा गए। सीपीआइ ने 1985 में सीट पर उम्मीदवार बदला और रामविनोद पासवान को टिकट दिया, जो 1995 तक लगातार विधानसभा गए।
सन् 2000 में हुए चुनाव में राजद के रामानंद राम ने सीपीआइ के रामविनोद सिंह को हरा दिया, लेकिन सीपीआइ ने 2005 के फरवरी में हुए विधानसभा चुनाव में पुनः वापसी की, पर बिहार में सरकार नहीं बन पायी। उसी साल अक्टूबर में मध्यवाधि चुनाव हुआ। सीपीआइ ने फिर बाजी मारी, लेकिन 2010 आते–आते स्थिति बदल गयी। 2000 में राजद की सीट से चुनाव जीतने वाले रामानंद राम ने पाला बदला और उन्होंने बीजेपी के टिकट पर चुनाव जीत लिया। फिलहाल बखरी से राजद के उपेंद्र पासवान विधायक हैं।
बेगूसराय से सीपीआइ उम्मीदवार के तौर पर भोला सिंह 1972 में विधानसभा पहुंचे। 1977 में वे कांग्रेस में आये। 2014 में बीजेपी से लोकसभा चुनाव जीते। 1990 में बासुदेव प्रसाद सिंह और 1995 में राजेंद्र प्रसाद सिंह सीपीएम के टिकट पर विधानसभा पहुंचे। फिलहाल, बेगूसराय विधानसभा सीट कांग्रेस के अमिता भूषण के कब्ज़े में है।
बेगूसराय की बछवाड़ा विधानसभा सीट 1985 से 1995 तक तक सीपीआइ के कब्ज़े में रही। अयोध्या प्रसाद सिंह के बाद दो बार अवधेश राय ने विधानसभा की नुमाइंदगी की। आखिरी बार 2010 में अवधेश राय सीपीआइ के टिकट पर विधानसभा पहुंचे। बछवाड़ा पहले बलिया लोकसभा क्षेत्र में था। अब बेगूसराय लोकसभा में है। फिलहाल यह सीट कांग्रेस के कब्जे में है।
परिसीमन के बाद सीपीआइ के लिए यह लोकसभा सीट और मजबूत हो जानी चाहिए थी लेकिन ऐसा नहीं हो सका। बेगूसराय के बछवाड़ा निवासी अमित कुमार बताते हैं कि सीपीआइ में अंदरूनी कलह के साथ संसदीय पदों की बढ़ती लोलुपता इसकी जिम्मेदार रही। बेगूसराय में बीहट के रहने वाले इप्टा के बिहार राज्य उपाध्यक्ष अमरनाथ सिंह कहते है कि 1995 के बाद लालू प्रसाद यादव की पिछड़ी जातियों की नुमाइंदगी वाली राजनीति ने वाम दलों की राजनीति की नींव हिला दी। उन्होंने पिछड़े और दलितों के समीकरण को जिस तरीके से साधा, उससे सीपीआइ का जनाधार खिसकने लगा।
बेगूसराय के स्टेशन रोड निवासी नवीन कुमार बताते हैं कि बलिया लोकसभा में वामपंथ का अच्छा प्रभाव था। 2008 में जब परिसीमन हुआ तो बलिया लोकसभा क्षेत्र बेगूसराय के साथ एकाकार तो हो गया लेकिन उसके वामपंथी प्रभाव वाले कुछ इलाके शेखपुरा, जमुई और मुंगेर में चले गए। बलिया के जो इलाके परिसीमन के बाद बेगूसराय से बाहर गए, वहां बीते वर्षों में सीपीआइ के भीतर जातिगत वर्चस्व की लड़ाई इस कदर तीव्र हो गई कि सीपीआइ के कुछ पुराने ज़मीनी नेताओं ने पार्टी पर सवर्णवाद का आरोप लगाते हुए पाला ही बदल लिया। आज वे नेता एनडीए से नत्थी सामाजिक न्याय की छोटी ताकतों के साथ नत्थी होने को अभिशप्त हैं। इसी वर्चस्व की लड़ाई का परिणाम रहा कि बिहार विधानसभा चुनाव से ठीक पहले बिहार में सीपीआइ की सोलह जिला इकाइयों ने एक साथ इस्तीफा दे दिया और पार्टी कमज़ोर हो गई। सवर्ण जाति के स्टेट सेक्रेटरी के साथ उसके बाद से पिछड़ा और दलित जमीनी कार्यकर्ताओं का अंतर्विरोध तेज ही होता गया है।
बेगूसराय के चर्चित गांव बीहट से एक कांग्रेसी नेता हुआ करते थे रामचरित्र सिंह। 1952 में हुए विधानसभा चुनाव में उन्होंने तेघड़ा विधानसभा के कांग्रेस के टिकट पर चुनाव में जीत हासिल की, लेकिन 1957 के विधानसभा चुनाव में उनका टिकट कांग्रेस ने काट दिया। रामचरित्र सिंह ने तब स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर परचा दाखिल किया और विधानचुनाव में भारी अंतर से जीत गये। इन्हीं रामचरित्र सिंह के बेटे हुए कामरेड चन्द्रशेखर सिंह। बेगूसराय में चंद्रशेखर सिंह को बड़े ही अदब से याद किया जाता है। 1962 में हुए चुनाव में चंद्रशेखर सिंह ने सीपीआइ के उम्मीदवार के तौर पर नामांकन भरा और चुनाव परिणाम भी उनके पक्ष में रहा। चंद्रशेखर की जीत उत्तर भारत में किसी भी वामपंथी पार्टी की पहली जीत मानी जाती है। इसी जीत के बाद से बेगूसराय को लेनिनग्राद और बीहट को लिटिल मॉस्को कहा जाने लगा। 1967 में बनी पहली गैर–कांग्रेसी सरकार में चंद्रशेखर सिंह को सिंचाई और कृषि–ऊर्जा मंत्री बनाया गया। उस वक्त बिहार के मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद थे। चन्द्रशेखर सिंह की वामपंथी नींव पर कालांतर में सूर्य नारायण सिंह ने इमारत खड़ी की। तेघड़ा विधानसभा सीट परिसीमन के बाद बरौनी विधानसभा हो गई। 2010 में पुनः उसे तेघड़ा ही कहा जाने लगा।
बेगूसराय में कम्युनिस्टों के इस चुनावी इतिहास में हमने देखा कि में अब तक जितने भी नेताओं का नाम आया, सभी निर्विवाद रूप से एक ही जाति के रहे– भूमिहार। अमित कुमार बताते हैं कि सीपीआइ के विभिन्न पदों पर न सिर्फ भूमिहार जातियों का कब्ज़ा रहा बल्कि आंतरिक संघर्ष भी भूमिहार जातियों से ही था। इसी संघर्ष के चलते यहां कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं हुआ। पार्टी के वैचारिक जगत की तस्वीर में कोई खास बदलाव नहीं हुआ। जिस देश में उच्च जाति का पर्याय उच्च वर्ग हो, वहां बेगूसराय में एक ही जाति के नेतृत्व में बने रहने के कारण कम्युनिस्टों के संघर्ष की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न लगने लगे। इससे कम्युनिस्टों का यह कथित ‘गढ़’ या लेनिनग्राद धीरे–धीरे धराशायी हो गया।
भोजपुर में वर्ग–संघर्ष का ‘सामाजिक न्यायवादी’ मॉडल
बात वर्ष 1965 की है। देश को अंग्रेजों से मुक्त हुए लगभग 18 साल हो गए थे। भोजपुर के सहार प्रखंड के अंतर्गत एकवारी गांव से एक शख्स ने त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में मुखिया पद के लिए नामांकन भरने का मन बना लिया था। उसने निश्चित समय पर नामांकन किया। चुनाव हुआ। वह शख्स चुनाव में जीत गया। 41 वर्षीय उस व्यक्तित्व का नाम था कमरेड रामनरेश राम।
रामनरेश राम उस गांव के निवासी थे जिसके बारे में उन्होंने ‘समकालीन जनमत’ के 23 सितम्बर 1990 के अंक के इंटरव्यू में बताया था कि ‘’यहां भूमिहार जाति की अच्छी आबादी है और इसे भूमिहारों का गांव कहा जाता है, लेकिन टोटल बैकवर्ड, हरिजन, धार्मिक अल्पसंख्यक मिलाकर भूमिहारों की संख्या से लगभग तीन गुना है। वहां आर्थिक लिहाज़ से कोई बड़ा जमींदार भले नहीं है लेकिन इन तथाकथित जमींदारों का जातिगत दबदबा कायम है और सामाजिक मामलों में ये बड़ी क्रूरता लिए हुए हैं।‘’ रामनरेश राम ने उसी इंटरव्यू में बताया था कि 1965 में जीतने के बाद गांव के खुराफ़ाती लोगों ने उनकी हत्या करने की साज़िश रची थी लेकिन इधर से भी बड़ी गोलबंदी होने लगी जिसके चलते वे लोग नरम पड़ गए।
भोजपुर की राजनीति में साठ और सत्तर का दशक बहुत बड़े बदलाव की ओर संकेत कर रहा था। उन्हें अभी मुखिया बने दो साल ही हुआ था कि 1967 के विधानसभा चुनाव में रामनरेश राम ने सीपीएम के टिकट पर सहार विधानसभा सीट से पर्चा दाखिल कर दिया। मतदान अपनी निर्धारित तारीख़ और समय से आरंभ हुआ, लेकिन मतदान के दौरान जो हुआ उसने भोजपुर ही नहीं, बिहार की राजनीति में सशस्त्र संघर्ष के मार्ग को प्रशस्त कर दिया।
आरा के जैन स्कूल में विज्ञान के शिक्षक कमरेड जगदीश मास्टर विधानसभा चुनाव लड़ रहे रामनरेश राम के इलेक्शन एजेंट थे। रामनरेश राम ने उक्त इंटरव्यू में बताया है– ‘’हम और मास्टर साहब बूथ पर पहुंचे, नकली वोटरों को चैलेंज कर हमने अरेस्ट करवाया। फिर क्या था, जमींदारों के लठैत व युवक पहले से लाव–लश्कर के साथ तैयार थे। उन्होंने जगदीश मास्टर को मारना आरम्भ कर दिया और जो लोग बचाने आये उन्हें भी मारकर लठैतों ने बेहोश कर दिया। मरा हुआ समझकर जगदीश मास्टर को छोड़ कर वे चले गये।‘’ जगदीश मास्टर प्रतिरोध , बदला और सामंती शान को ख़त्म करने का संकल्प लेकर वहीं से भूमिगत हो गए। जगदीश मास्टर फिर कभी लौटकर जैन स्कूल में विज्ञान पढ़ाने नहीं गये और न ही कभी गांव लौटे।
यहीं से भोजपुर की राजनीति ने न सिर्फ करवट बदली बल्कि सामाजिक संघर्ष और न्याय की राजनीति का आगाज़ हो गया। इस तरह एकवारी गांव की घटना भोजपुर में क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन का प्रस्थान बिंदु बन गई।
यही वह तथ्य है जो भोजपुर के कम्युनिस्ट आंदोलन से बेगूसराय की वामपंथी राजनीति को अलग करता है। भोजपुर के छोटकी खड़ाव निवासी कवि–लेखक जितेंद्र कुमार बताते है कि इलाक़े के भूमिहार और राजपूत जाति के लोगों को तब बोलने नहीं आता था। उनके भीतर जातिगत अहंकार सामने आ जाता थ। दलित और पिछड़े परिवार के लोगों को वोट नहीं देने दिया जाता था और जो बच्चे पढ़ने जाते थे उनके बारे में यह कहा जाता था कि ई सब पढ़ लिख लेगा तो हमारे यहां मजदूरी कौन करेगा। जिंतेंद्र कुमार की बातों की पुष्टि रामनरेश राम के इंटरव्यू से होती है।
एकवारी का ऐतिहासिक संघर्ष
भोजपुर के सहार के अंतर्गत एकवारी में पहली हत्या 1971 में शिवपूजन सिंह और जगदीश सिंह नामक दो सवर्णों की हुई थी। ये दोनों दबंग माने जाते थे और इनकी हत्या की वजह छेड़खानी की एक घटना जाती है। उधर जगदीश मास्टर, जिन्हें 1967 में विधानसभा चुनाव के दौरान भूमिहारों से मार खानी पड़ी, वे भूमिगत हो चुके थे। नक्सलबाड़ी जाकर उन्होंने तब कामरेड चारु मजूमदार से भेंट की।
इधर एक और शख्स जेल में 14 साल की सजा काट कर बाहर आ चुका था, जिसके विचारों में कम्युनिस्ट आंदोलन की एक रूपरेखा तैयार हो चुकी थी। इनका नाम था रामेश्वर अहीर उर्फ साधु जी। अब इलाक़े में प्रतिरोध के स्वर को ऊंचा बनाये रखने के लिए तीन व्यक्तियों की टीम तैयार हो चुकी थी– रामनरेश राम, जगदीश मास्टर और रामेश्वर अहीर। उधर चारु मजूमदार भोजपुर के बाघिन में आये थे, जिनसे नक्सल आंदोलन के लिए संगठन निर्माण के गुर कामरेड रघु ले रहे थे (मुझे बताया गया कि कमरेड रघु एक छद्म नाम है, असली नाम नहीं बताया जा सकता)।
हुआ यों कि यहां 9 दिसम्बर 1972 को थाना सिंह नाम के एक और दबंग की हत्या हो गयी। इसकी जिम्मेदारी किसी ने नहीं ली, लेकिन थाना सिंह के समर्थकों ने इस हत्या का जिम्मेदार नक्सल आंदोलन के जुड़े लोगों को माना। यहीं से भोजपुर में हत्याओं का एक लंबा सिलसिला आरम्भ हो गया जिसकी जद में एकवारी, चवरी, बिहिया, सोनाटोला, चिल्हौर, बहुआरा लाल गंज आ गए और संदेश पीरो से लेकर जगदीशपुर तक फैल गया। इस बीच कमरेड रामनरेश राम, जगदीश मास्टर और रामेश्वर अहीर ने भोजपुर के सहार, संदेश, बिहिया और जगदीशपुर के इलाकों में घूम–घूम कर दलितों और पिछड़ों को गोलबंद करना शुरू कर दिया। अब यहां लड़ाई नहीं बल्कि युद्ध का एक केंद्र बन चुका था। एकवारी नक्सलियों का केंद्र बन चुका था। उसी दरमियान सहार के बहुआरा गांव में पुलिस और नक्सलियों के बीच मुठभेड़ हुई और बताते हैं कि लगभग सौ घंटे तक दोनों ओर से गोली चली। दरअसल नक्सली गरीबों और दलितों–वंचितों के इलाकों में रहते थे, इसलिए उन्ही के घरों को पुलिस ने निशाने पर लिया। घर जलने लगे। इस गोलीबारी में बीच लगभग 120 जवान मारे गये। इस घटना के समानांतर कई और संघर्ष जारी थे। ऐसे ही संघर्षों में जगदीश महतो, रामेश्वर जाहिर, जौहर दत्त, बूटन और शीला चटर्जी जैसे लोग मारे गये।
1964 में भारत–चीन की जंग खत्म होने के बाद गहरे होते अंतर्विरोधों के चलते सीपीआइ से अलग होकर सीपीएम का गठन किया गया, लेकिन 1967 में उसके भीतर भी अंतर्विरोध पनपने लगे। कांग्रेस की सरकार को बचाने के लिए भूमि सुधार की अड़चनों पर जब कोई बात नहीं हुई, तब प्रतिक्रिया में कुछ नेताओं ने पार्टी फोरम के खिलाफ जाकर नक्सलबाड़ी का आंदोलन आरम्भ कर दिया। सीपीएम ने चारु मजूमदार समेत दर्जन भर नेताओं को पार्टी से निकाल दिया, जिसके बाद भाकपा (माले) का गठन हुआ। बिहार में सत्यनारायण सिंह इसके प्रमुख थे। उस वक्त तक कामरेड रामनरेश राम सीपीएम में ही थे। उस वक्त की भाकपा (माले) का स्वरूप आज की तरह बिलकुल भी नहीं था। सत्यनाराण सिंह भोजपुर के रहने वाले वाले थे और सामन्तवादियों, शोषकों के प्रति बहुत लचीला व नरम रुख रखते थे। एसएन सिंह राजपूत जाति से ताल्लुक रखते थे और रामनरेश राम उनकी कारगुजारियों को देख–समझ रहे थे।
‘समकालीन जनमत’ को दिए इंटरव्यू में रामनरेश राम ने बताया है– ‘’हम नए नेतृत्व की ओर देख रहे थे। उधर चारु मजूमदार की पुलिस हिरासत में मृत्यु हो चुकी थी। जगदीश मास्टर और रामेश्वर अहीर की पुलिस मुठभेड़ में हत्या हो गयी थी।‘’ इधर संघर्ष को सड़क पर लाने की तैयारी जोरदार ढंग से होने लगी, जिसके लिए 1982 में IPF के नाम से वामपंथी विचारधारा के लोगों को मिलाकर एक व्यापक मोर्चा बना। यह 1994 तक आस्तित्व में रहा। भूमिगत पार्टी खुले में आ गई और विनोद मिश्र इसके पहले महासचिव बनाए गए।
मास्टर जगदीश 10 दिसंबर 1972 को शहीद हो गए थे। विनोद मिश्र भूमिगत दौर में, नवंबर 1975 में दूसरे महासचिव जौहर की शहादत के बाद महासचिव बने थे। शीला एकवारी में शहीद हुई थीं।
खोखली बुनियाद पर बिहार का लेनिनग्राद
इस तरह हम देखते हैं कि बेगूसराय और भोजपुर के कम्युनिस्ट आंदोलन के बीच न केवल कई बुनियादी व अहम फ़र्क रहे, बल्कि कम्युनिस्ट पार्टी के उत्तरोत्तर विभाजन और वैचारिक व रणनीतिक विकास को अपनाने के लिहाज से भी भोजपुर की जमीन कहीं ज्यादा उर्वर रही। ऐसा नहीं है कि यह सब अपने आप हुआ।
बेगूसराय कांग्रेसी विरासत वाली संसदीय वाम राजनीति के सांचे में ढले सवर्ण नेतृत्व के हाथों में हमेशा के लिए कैद हो गया। इसके उलट आरा ने वैश्विक कम्युनिस्ट आंदोलन से सबक लेते हुए वैचारिक संघर्ष से सशस्त्र संघर्ष तक का ऐतिहासिक सफ़र तय किया, जब तक कि भाकपा (माले) ओवरग्राउंड नहीं हो गई। आरा की नींव में संघर्ष था। बिहार के लेनिनग्राद की बुनियाद खोखली थी।
मौजूदा लोकसभा चुनाव में बेगूसराय व आरा की कम्युनिस्ट उम्मीदवारी के बीच जो अंतर्विरोध दिख रहे हैं, उनका एक सघन इतिहास है। यह सब कुछ अचानक नहीं हुआ है। भूलना नहीं चाहिए कि भारत के अंग्रेजी दासता से मुक्त होने के बाद बिहार में सबसे पहला आंदोलन 1952 में नहर के पानी के रेट को लेकर आरा में ही हुआ था, हालांकि इसकी जमीन भी काफी पहले से तैयार हो रही थी।