भाजपा और उसके ज़रख़रीद मीडिया के धुआँधार प्रचार, नरेन्द्र मोदी की ढाई दर्जन रैलियों और हज़ारों करोड़ के चुनावी खर्च के बावजूद पाँच विधानसभाओं के चुनाव में भाजपा को हार का मुँह देखना पड़ गया। मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़, ये तीन बड़े राज्य उसके हाथ से निकल गये और तेलंगाना और मिज़ोरम में भी कुछ हाथ नहीं आया। सारा हाईटेक प्रचार, अमित शाह का ”चुनाव मैनेजमेंट” और मीडिया प्रबन्धन धरा का धरा रह गया। राजस्थान में लम्बे समय से जारी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण, प्रशासन के नंगे संरक्षण के साथ गाय के नाम पर की गयी अनेक हत्याओं और जगह–जगह दंगे भड़काना भी काम नहीं आया। मध्यप्रदेश में भी जातीय–धार्मिक ध्रुवीकरण की तमाम कोशिशें बेकार रह गयीं। छत्तीसगढ़ में बसपा–अजित जोगी के गठबन्धन द्वारा कांग्रेस के वोट काटने की उम्मीद भी बेकार रह गयी। लोगों के बदले रुख का अनुमान भाजपा को पहले ही लगने लगा था और उसी अनुपात में उसके नेताओं की बौखलाहट भी बढ़ती साफ दिखायी दे रही थी। चुनाव प्रचार का आख़िरी दौर आते–आते नरेन्द्र मोदी ख़ुद बुर्जुआ शालीनता के दिखावे को भी ताक पर धरकर घटियाई के सारे रिकॉर्ड तोड़ते नज़र आये।
इस चुनाव में कांग्रेस की विजय के साथ ही बुद्धिजीवियों और तमाम प्रगतिशील लोगों का एक बड़ा हिस्सा इस बात को लेकर बेहद ख़ुश है कि भारतीय जनता पार्टी के रूप में साम्प्रदायिक फासीवाद की पराजय हुई है और फासीवादी संगठनों के देशभर में बढ़ते उत्पात पर लगाम लग गयी है। अभी से यह मानकर चला जा रहा है कि 2019 के आम चुनाव में भाजपा केन्द्र की सत्ता से बाहर हो जायेगी और फासीवाद के कहर से देश को मुक्ति मिल जायेगी।
इसमें कोई शक नहीं कि इस हार से भाजपा को भारी नुकसान उठाना पड़ा है और भाजपा में आंतरिक कलह और उठापटक भी इससे तेज़ होगी। मोदी और शाह की जोड़ी ने जिस तरह से पार्टी के अन्य नेताओं को किनारे लगाया है उससे अन्दर ही अन्दर नाराज़ नेता अब मुखर होंगे जबकि वोट बटोरने वाले नेता के रूप में मोदी की छवि की हवा निकल गयी है। लेकिन क्या इसे देश में फासीवादी ताक़तों की पराजय या उसकी उल्टी गिनती की शुरुआत कहा जा सकता है? क्या फासीवाद, धार्मिक उन्माद और दकियानूसी कट्टरपन की शक्तियों के ख़िलाफ़ लड़ाई में हम थोड़ा भी निश्चिन्त हो सकते हैं? इन सभी सवालों का जवाब है, पुरज़ोर ‘नहीं‘! चुनाव के परिणाम यह भी बताते हैं कि साढ़े चार साल के मोदी राज से असन्तुष्ट जनता उससे छुटकारा तो पाना चाहती है लेकिन कांग्रेस के पुराने पापों को भी उसने भुलाया नहीं है। सभी जगह आमने–सामने के मुकाबलों में दोनों के वोट का प्रतिशत लगभग बराबर ही है।
यह सही है कि जनप्रतिनिधियों के चुनाव की मौजूदा पूँजीवादी प्रणाली में चुनाव परिणाम वास्तविक जनभावनाओं को उजागर नहीं करते लेकिन फिर भी एक हद तक तो इनसे जनता की राय का पता चलता ही है। चुनाव नतीजों के आधार पर इतना तो बेहिचक कहा जा सकता है कि मतदाताओं की बहुसंख्या ने भाजपा गठबन्धन के खिलाफ अपनी नाराज़गी जाहिर की है। यह साफ है कि लोगों ने मोदी सरकार की घोर पूँजीपरस्त आर्थिक नीतियों और हिन्दुत्ववादी फासिस्ट राजनीति और सामाजिक–सांस्कृतिक नीतियों के खिलाफ अपना मत दिया है। ‘विकास’ के लम्बे–चौड़े दावों में से कोई भी पूरा होना तो दूर की बात है, पिछले साढ़े चार साल में खाने–पीने, दवा–इलाज और शिक्षा जैसी बुनियादी चीज़ों में बेतहाशा महँगाई, मनरेगा और विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं में भारी कटौती से आम लोग बुरी तरह तंग हैं। बेरोज़गारी ऐसा विकराल रूप धारण कर चुकी है जैसा पहले कभी नहीं था। नोटबन्दी और जीएसटी की सबसे बुरी मार ग़रीबों पर पड़ी है। अभी–अभी आयी एक रिपोर्ट के अनुसार नोटबन्दी और जीएसटी के कारण देश भर में 55 लाख छोटे–मोटे रोज़गार करने वालों का काम छिन गया। उद्योगों में काम करने वाले मज़दूर अपने अनुभव से जान रहे हैं कि मोदी सरकार आने के बाद से मज़दूरों के काम करने और जीने की परिस्थितियाँ किस कदर कठिन हो गयी हैं। यह भी एक मानी हुई सच्चाई है कि समाज का ऊपरी सम्पन्न तबका लोकतंत्र के इस तमाशे में कम दिलचस्पी रखता है और अधिकांशतः वह वोट डालने जाता ही नहीं। आम ग़रीब मेहनतकश व मध्यवर्गीय लोग ही वोट डालने के प्रति ज़्यादा उत्साह दिखाते हैं। इसका यही संकेत है कि पाँचों राज्यों में आम मेहनतकश मतदाताओं की बहुसंख्या ने मोदी सरकार और संघ परिवार की नीतियों को खारिज कर दिया है।
यह दलील दी जा सकती है और यह बेबुनियाद भी नहीं है कि आम मतदाता किसी पार्टी की नीतियों की अच्छाई–बुराई जाँचकर वोट नहीं देता। जातिगत और धार्मिक आधार पर होने वाले ध्रुवीकरण के अलावा पैसे और ताक़त का ज़ोर भी वोट डलवाने में अहम भूमिका निभाता है। लेकिन इसके बावजूद यह ध्रुवीकरण भाजपा गठबन्धन के पक्ष में क्यों नहीं हो सका, जबकि भाजपा के चुनाव प्रबन्धकों ने हर हथकण्डा आजमाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी? पैसे की ताक़त के साथ ही समाज के दबंग और प्रभुत्वशाली तबकों का और स्थानीय प्रशासन का भी अधिक समर्थन उसीके साथ था। ईवीएम के घपलों के बारे में कुछ कहने की ज़रूरत नहीं।
अगर मतदाताओं की बहुसंख्या ने भाजपा को नकार दिया है तो क्या उसने कांग्रेस को वास्तविक समर्थन दिया है और इससे उसे अपने जीवन में बदलाव आ जाने की उम्मीद है? नहीं, यह सोचना भी ग़लत होगा। दरअसल, यह विकल्पहीनता का चुनाव था। मतदाता इस बारे में किसी भ्रम के शिकार नहीं हैं। आधी सदी से ज़्यादा समय के तजुर्बों ने उनके सामने यह बिल्कुल साफ कर दिया है कि कोई भी पूँजीवादी चुनावी पार्टी उनकी आकांक्षाओं पर खरी नहीं उतरती। कांग्रेस के शासन को भी लोग अच्छी तरह से जानते हैं। लेकिन फिर भी चुनाव के समय मतदाताओं की सोच यह होती है कि जब कोई ऐसा विकल्प सामने नहीं है जो उनकी आकांक्षाओं को सही मायने में पूरा करे तो क्यों न दो बुराइयों में से कम बुराई वाले को चुन लिया जाये। कांग्रेस का चुनाव इसी तरह कम बुराई का चुनाव कहा जा सकता है। ऐसा नहीं है कि लोगों को कांग्रेस के सुधर जाने का भरोसा हो गया है और वे उसकी नीतियों के समर्थक हो गये हैं।
इन चुनावों में हार से ये हिन्दुत्ववादी फासिस्ट अपनी हरकतों से बाज़ आ जायेंगे, ऐसा सोचना एक आत्मघाती ख़ुशफ़हमी होगी। चुनाव परिणाम आने के बाद भी जिस तरह से उत्तर प्रदेश सरकार बुलन्दशहर की हिंसा के आरोपियों का बचाव कर रही है और संघ परिवार के संगठन वहाँ तनाव भड़काने में लगे हुए हैं उससे साफ़ है कि इनके पास और कोई रास्ता है ही नहीं। आने वाले दिनों में ये गाय, मन्दिर, आतंकवाद, पाकिस्तान जैसे मसलों पर और भी ज़्यादा शोर–शराबा मचायेंगे। युद्धोन्माद पैदा करने की कोशिश करेंगे। हरचन्द कोशिशों के बावजूद मन्दिर मुद्दा गरमाने की इनकी कोशिशें फुस्स हो चुकी हैं लेकिन मन्दिर बनाने का अध्यादेश लाने के बहाने चुनाव के ऐन पहले ये कुछ हंगामा फिर खड़ा कर सकते हैं। दूसरे, लोगों को लुभाने–भरमाने के लिए कुछ सरकारी सौगातें देने की कोशिश कर सकते हैं। तमाम अर्थशास्त्रियों की चेतावनी के बावजूद सरकार जिस तरह से रिज़र्व बैंक के सुरक्षित कोष से साढ़े तीन लाख करोड़ को भी हड़पने पर आमादा दिखायी दे रही है, उसके पीछे यही मकसद लगता है। भले ही, इस चक्कर में पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठ जाये। सरकार पहले से भारी वित्तीय संकट से जूझ रही है। हालत यह हो चुकी है कि इस साल लगभग एक लाख करोड़ के आयकर रिफ़ंड रोक लिये गये हैं क्योंकि सरकार के पास देने के लिए पैसे ही नहीं हैं। जीएसटी से टैक्स संग्रह बढ़ने के सारे दावे फ़ेल हो चुके हैं। इस वित्तीय वर्ष के पहले सात महीनों में ही वित्तीय घाटा पूरे वित्तीय वर्ष के बजट का 104% हो चुका है। मज़दूरों को बुरी तरह निचोड़ने के बावजूद उद्योगों की हालत ख़राब है। अम्बानी–अडानी जैसे चन्द एक घरानों को छोड़कर, जिन्हें सारे नियमों को ताक पर धरकर सरकारी मदद से फ़ायदे पहुँचाये जा रहे हैं, ज़्यादातर पूँजीवादी घराने घाटे या घटते मुनाफ़े से परेशान हैं।
2019 के चुनाव के बाद, सत्ता में चाहे भाजपा आये या कांग्रेस गठबंधन, अर्थव्यवस्था की हालत और भी बदतर होने वाली है। दोनों की ही आर्थिक नीतियाँ समान हैं। रोज़गार, किसानों की बदहाली का समाधान दोनों के पास नहीं, निजीकरण दोनों को करना ही है। मज़दूर–विरोधी ”श्रम सुधारों” को दोनों को ही आगे बढ़ाना है। इसका सारा बोझ आम मेहनतकश जनता पर ही डाला जायेगा। ऐसे में जनता में हताशा और असन्तोष फिर बढ़ेगा। फासिस्ट गुण्डा दलों और सरकारी तंत्र में बैठे अपराधियों के खिलाफ कांग्रेस सरकारों से कार्रवाई की उम्मीद करना भोलापन ही है। भाजपा और कांग्रेस ज़ुबानी लड़ाई के अलावा एक दूसरे के अपराधों पर कुछ भी नहीं करने वाले। भूलना नहीं चाहिए कि गुजरात के दंगों के बाद मोदी को ”क्लीन चिट” कांग्रेस के राज में ही मिली थी। ‘आजतक‘ पर प्रसारित स्टिंग ऑपरेशन में गुजरात के अनेक नेताओं, अफ़सरों आदि के वीडियो पर अपने अपराधों की खुली स्वीकारोक्ति के बावजूद किसी के ख़िलाफ़ एफ़आईआर तक दर्ज नहीं हुई थी।
ऐसा कहने का मतलब यह नहीं कि आम चुनावों में भाजपा की हार से कोई फ़र्क ही नहीं पड़ेगा। बेशक, कांग्रेस उन्हीं आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ायेगी। दरअसल नोटबन्दी के मामले को छोड़ दिया जाये, तो मोदी सरकार की सभी आर्थिक नीतियाँ कांग्रेस की ही आर्थिक नीतियाँ हैं, बस उन्हें ज़्यादा बेरोकटोक ढंग से और डण्डे मारकर लागू किया जाता रहा है, और नियम–क़ानूनों की बलि चढ़ाकर चन्द पूँजीवादी घरानों को मनमानी लूट की छूट दी जाती रही है। लेकिन फासिस्ट गिरोह के सत्ता से बाहर होने के बाद इनके गुण्डा दलों को सत्ता का खुला संरक्षण कम होगा और आमूलगामी बदलाव के लिए काम करने वाली शक्तियों को भी काम करने के लिए कुछ समय मिल जायेगा। इस मोहलत का लाभ उठाकर वामपंथी ताक़तें स्थिति के सही विश्लेषण पर आधारित संघर्ष का जुझारू कार्यक्रम लेकर जनता के बीच जाती हैं, उसके जीवन से जुड़े सवालों पर संघर्षों को आगे बढ़ाती हैं, सांप्रदायिकता–जातिवाद के खिलाफ दृढ़ता से खड़ी होती हैं, और फासीवाद–विरोधी रैडिकल सामाजिक आन्दोलन खड़ा करने की कोशिशों में लगती हैं, तो नयी सरकार के कारनामों से पैदा होने वाले जन असन्तोष का लाभ फिर से फासीवादियों को उठाने से रोक सकती हैं और उसे पूँजीवाद–विरोधी दिशा दे सकती हैं। लेकिन अगर सत्ता से बाहर होते ही फासीवाद का ख़तरा टल जाने की ख़ुशफ़हमी में पड़े रहे, कांग्रेस गठबन्धन की जीत को ही फासीवाद की हार मानकर निश्चिन्त होकर बैठे रहे, तो जनता का बड़ा हिस्सा निश्चय ही फिर से फासीवादी ताक़तों की ओर जायेगा, फासीवादी ताक़तें और भी मज़बूत होकर उभरेंगी।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि न्यायपालिका, आई.बी.,सी.बी.आई., ई.डी., समूची नौकरशाही और मुख्य धारा की मीडिया के बड़े हिस्से का फासिस्टीकरण किया जा चुका है। शिक्षा–संस्कृति के संस्थानों में संघी विचारों वाले लोग भर गये हैंें, पाठ्यक्रमों में बदलाव करके बच्चों तक के दिमाग़ों में ज़हर भरा जा रहा है। सेना में भी शीर्ष पर फासिस्ट प्रतिबद्धता वाले लोगों को बैठाया जा रहा है। संघी फासिस्ट अगर चुनाव हार भी जायेंगे तो सड़कों पर अपना ख़ूनी खेल जारी रखेंगे और फिर से सरकार बनाने के लिए क्षेत्रीय बुर्जुआ वर्ग की चरम पतित और अवसरवादी पार्टियों के साथ गाँठ जोड़ने की कोशिश करते रहेंगे। वे अच्छी तरह समझते हैं कि कांग्रेस या बुर्जुआ पार्टियों का कोई भी गठबंधन अगर सत्तारूढ़ होगा तो उसके सामने भी एकमात्र विकल्प होगा नव–उदारवादी विनाशकारी नीतियों को लागू करना। इन नीतियों को एक निरंकुश बुर्जुआ सत्ता ही लागू कर सकती है, इसलिए दमन और भ्रष्टाचार का रास्ता तो भाजपा–विरोधी बुर्जुआ पार्टियों की सत्ता को भी चुनना ही पड़ेगा। ऐसे में भाजपा फिर धार्मिक कट्टरपंथ, अन्धराष्ट्रवाद और पुनरुत्थानवाद के नारे देते हुए मध्य वर्ग के एक धुर–प्रतिक्रियावादी रूमानी उभार को हवा देगी और उस लहर पर सवार होकर तथा क्षेत्रीय बुर्जुआ दलों को साथ लेकर सत्ता तक पहुँचाने के कुलाबे भिड़ायेगी। कांग्रेस जो नरम हिन्दुत्व की लाइन ले रही है, उसका भी लाभ अगली पारी में भाजपा को ही मिलेगा।
कहने का मतलब यह है कि फासीवाद–विरोधी मोर्चे का सवाल किसी चुनावी मोर्चे का सवाल नहीं है। फासीवाद–विरोधी निर्णायक संघर्ष तो सड़कों पर होगा। फासिस्ट सत्ता में रहें या न रहें, इनका उत्पात तबतक जारी रहेगा जबतक पूँजीवादी व्यवस्था बनी रहेगी। सड़कों पर फासीवाद–विरोधी लड़ाई के मोर्चे में कोई भी बुर्जुआ पार्टी साथ नहीं आने वाली है। बंगाल और त्रिपुरा के बाद भी, सारी उम्मीद चुनावी हार–जीत पर टिकाये पतित संसदीय वामपन्थियों ने अपने आचरण से साबित कर दिया है कि इतिहास से कोई सबक न लेते हुए वे 1920 और 1930 के दशक का ही इतिहास दुहराने वाले हैं, जब जर्मनी और इटली में इनकी समझौतापरस्ती का लाभ उठाकर हिटलर और मुसोलिनी सत्ता तक पहुँचे थे। आज फासीवाद–विरोधी किसी जुझारू संयुक्त मोर्चे में मज़दूर वर्ग के सभी क्रान्तिकारी संगठनों और मंचों के अतिरिक्त कुछ निम्न–बुर्जुआ रेडिकल संगठन ही शामिल हो सकते हैं। सड़कों के संघर्ष में ”पॉपुलर फ्रंट” जैसी कोई रणनीति काम नहीं आयेगी। बेशक जबतक बुर्जुआ जनवाद है, तबतक बुर्जुआ चुनावों का भरपूर ‘टैक्टिकल‘ इस्तेमाल किया जाना चाहिए, लेकिन चुनावी हार–जीत से फासीवाद को ठिकाने लगा देने की खामख़याली आत्मघाती मूर्खता होगी।
असल बात यह है कि हमें तृणमूल स्तर पर कामों को संगठित करना होगा, एक जुझारू प्रगतिशील श्रमिकवर्गीय सामाजिक आन्दोलन खडा करना होगा और मज़दूरों और रेडिकल प्रगतिशील युवाओं के फासिस्ट–विरोधी दस्ते बनाने होंगे। किसी को लग सकता है कि मज़दूर वर्ग के आन्दोलन और क्रान्तिकारी संगठनों की स्थिति को देखते हुए यह एक दूर की कौड़ी है। पर हमें यह बात कभी नहीं भूलनी चाहिए कि यदि परिस्थितियों का आकलन और उस पर आधारित कार्यदिशा सही हो तो तो व्यवस्था का संकट बढ़ने के साथ ही उस लाइन पर अमल के नतीजे चमत्कारी गति से सामने आते हैं, क्रान्तिकारी कामों का तेज़ी से विस्तार होता है और व्यवस्था के संकट को एक क्रान्तिकारी संकट में तब्दील किया जा सकता है। इसी बात को संसदीय जड़वामन और दुनियादार “प्रगतिशील” शुतुरमुर्ग नहीं समझ पाते और अपने घोंसलों के दरवाजे़ पर बैठे हुए क्रान्तिकारी मंसूबों को ‘हवाई पुलाव’ बताते रहते हैं!
हिन्दुत्ववादी फासिस्ट ताक़तों को भारतीय पूँजीवाद और विश्व पूँजीवाद के जिन संकटों ने खाद–पानी दिया था वे संकट न केवल मौजूद हैं वरन् आने वाले दिनों में और गहरायेंगे। कई अर्थशास्त्री और बुर्जुआ आर्थिक संस्थाएँ चेतावनी दे रही हैं कि एक दशक पहले की मन्दी से भी भीषण मन्दी में विश्व अर्थव्यवस्था फँसने वाली है। ऐसे में फासिस्ट ताकतों को देश का शासक पूँजीपति वर्ग ज़ंजीर में बँधे शिकारी कुत्ते की तरह न केवल पालता–पोसता रहेगा वरन् जब भी ज़रूरत होगी ज़ंजीर खोल देने में हिचकिचायेगा नहीं। इसलिए फासीवाद से मुकाबले की तैयारियाँ जारी रखनी होंगी और उनमें तेज़ी लानी होगी।
किसी चुनावी जीत–हार से फासीवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में कोई निर्णायक अन्तर आयेगा इस भ्रम को दूर करने के लिए इस तथ्य को ध्यान में रखना ज़रूरी है कि जिस दौर में भारत में नवउदारवादी नीतियों का वर्चस्व क़ायम हुआ, वही हिन्दुत्ववादी फासीवाद के प्रभाव–विस्तार का भी दौर रहा है। बाबरी मस्जिद में राम जन्मभूमि का ताला खुलवाना, आडवाणी की रथयात्रा, गुजरात 2002, पूरे देश में साम्प्रदायिक दंगों, तनाव और अल्पसंख्यक आबादी के लगातार बढ़ते अलगाव का सिलसिला और फिर मोदी का सत्ता में आना — इस पूरे राजनीतिक घटनाक्रम को नवउदारवादी नीतियों के निर्णायक वर्चस्व की स्थापना की प्रक्रिया से जोड़कर आसानी से देखा जा सकता है। नवउदारवादी नीतियों को लागू करने से और ‘‘नरम हिन्दुत्व’’ की लाइन लागू करने से कांग्रेस को भी कोई परहेज़ नहीं रहा है। छोटे पूँजीपतियों और पूँजीवादी भूस्वामियों की क्षेत्रीय पार्टियों को भी इन नीतियों से या भाजपा से गाँठ जोड़ने से कोई परहेज़ नहीं रहा है, लेकिन इन दलों के पीछे न तो कोई धुर प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन है न ही कोई कैडर आधारित ढाँचा है। इसलिए, ज़मीनी स्तर पर जाकर साम्प्रदायिक आधार पर जनसमुदाय को बाँटने और मज़दूरों की संगठित शक्ति या उनके संगठित होने की सम्भावनाओं पर चोट करने के मामले में ये पार्टियाँ भाजपा और संघ परिवार जितनी प्रभावी कभी नहीं हो सकतीं। ये सत्ता में आ भी जायें तो नवउदारवाद की नीतियों पर अमल में तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन समाज में नीचे तक जनता को बाँटने के लिए और मेहनतकश जनता की एकजुटता पर चोट करने के लिए हिन्दुत्ववादी फासिस्ट तब भी उसी व्यापकता और बर्बरता के साथ काम करते रहेंगे। किसी भी सूरत में भाजपा की किसी चुनावी शिकस्त का मतलब फासिस्ट ताकतों का पीछे हटना मानना एक खतरनाक मुग़ालते का शिकार होना होगा।
दूसरी ओर, यह भी याद रखना होगा कि संसदीय वामपंथी दलों ने मज़दूर वर्ग को अर्थवाद व संसदीय विभ्रमों में उलझाकर अराजनीतिक और निहत्था बनाने में एकदम वही भूमिका निभायी है जो 1920 और 1930 के दशक में यूरोपीय सामाजिक जनवादी पार्टियों ने निभायी थी। जर्मनी में हिटलर और इटली में मुसोलिनी के ने़तृत्व में फासीवाद के सत्ता में आने में इन पार्टियों की भी भूमिका थी। भारत में संसदीय वामपंथियों ने हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथ विरोधी संघर्ष को मात्र चुनावी हार–जीत का और कुछ रस्मी प्रतीकात्मक विरोध का मुद्दा बना दिया है। और अब ये तृणमूल स्तर पर मेहनतकशों को साथ लेकर फासिस्ट कैडरों की सरगर्मियों की प्रभावी काट कर सकने की क्षमता खो चुके हैं। जहाँ तक क्रान्तिकारी वाम की बिखरी शक्तियों का सवाल है, अपनी विचारधारात्मक कमज़ोरियों के कारण और लम्बे समय से जारी बिखराव–ठहराव के कारण फिलहाल वे प्रभावी हस्तक्षेप की स्थिति में नहीं हैं। ऐसे में फासिज़्म विरोधी नयी लामबन्दी की एकदम नये सिरे से ही शुरुआत करने की कठिन चुनौती हमारे सामने है। पूँजी की शक्तियों ने राज्य के उपकरणों के ज़रिए अपना वर्चस्व स्थापित करने के साथ ही, वर्गों के युद्ध में अपने फासिस्ट गुर्गों के ज़रिए समाज में कई रूप में अपनी खन्दकें खोद रखी हैं और बंकर बना रखे हैं। इनसे मुकाबले के लिए हमें वैकल्पिक शिक्षा, प्रचार और संस्कृति के अपने तंत्र के ज़रिए प्रति–वर्चस्व के लिए जूझना होगा, मज़दूर वर्ग को राजनीतिक स्तर पर शिक्षित–संगठित करना होगा और मध्य वर्ग के रैडिकल तत्वों को उनके साथ खड़ा करना होगा। संगठित क्रान्तिकारी कैडर शक्ति की मदद से हमें भी अपनी खन्दकें खोदकर और बंकर बनाकर पूँजी और श्रम की ताक़तों के बीच मोर्चा बाँधकर चलने वाले लम्बे वर्गयुद्ध में पूँजी के भाड़े के गुण्डे फासिस्टों से मोर्चा लेना होगा। यह रणनीति राजनीति के क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि समाज और संस्कृति के हर मोर्चे पर हमें लागू करनी होगी।
मोदी सरकार के कारनामों से मोहभंग के कारण देश भर में मेहनतकश लोग और छात्र–नौजवान सड़कों पर उतरकर अपना विरोध दर्ज करा रहे हैं। संघ परिवार द्वारा फैलाये जा रहे नफ़रत के ज़हर के ख़िलाफ़ भी बुद्धिजीवियों–लेखकों–कलाकारों से लेकर आम नागरिक भी लगातार आवाज़ उठा रहे हैं। इस विरोध में भी छात्र–नौजवान अगली कतारों में हैं। नरेन्द्र मोदी का पाखण्डी मुखौटा तार–तार हो चुका है। देश ही नहीं, विदेशों में भी उसकी थू–थू हो रही है और देश में संघ परिवार द्वारा फैलाये जा रहे घृणा के वातावरण की कड़ी आलोचना हो रही है। लेकिन महज़ इतने से ही साम्प्रदायिक फासीवाद अपने दड़बे में नहीं सिमट जायेगा।
मगर पूँजीवादी दलों की किसी नयी सरकार का बनना मेहनतकश आबादी के लिये साँपनाथ की जगह नागनाथ का कुर्सी पर बैठना ही साबित होगा। लुटेरों के एक गिरोह की जगह दूसरे गिरोह के लुटेरे उन्हें लूटेंगे। देशी–विदेशी पूँजीपतियों की लूट न केवल जारी रहेगी बल्कि वह और बढ़ती ही जायेगी। उदारीकरण–निजीकरण की नीतियाँ न तो सरकारों की साज़िश का नतीजा हैं न ही दुनिया के पूँजीपतियों की सनक। ये विश्व पूँजीवाद के विकास के आन्तरिक तर्क से पैदा हुई हैं। ये बाज़ार और मुनाफ़े की व्यवस्था की गतिकी के नियमों से संचालित हो रही हैं। मौजूदा पूँजीवादी ढाँचे के भीतर इनका कोई विकल्प नहीं है। इन नीतियों को केवल एक ही सूरत में उलटा जा सकता है। मौजूदा पूँजीवादी ढाँचे को तहस–नहस करके। बाज़ार और मुनाफ़े पर टिकी समूची पूँजीवादी व्यवस्था को ही नेस्तनाबूद करके। मज़दूरों को इसी राह पर आगे बढ़ने की तैयारी करनी है।
इसकी तैयारी में, क्रान्तिकारी शक्तियों को पूँजीवादी चुनावों के मंच का भी यथासम्भव इस्तेमाल करना होगा। यह सच है कि पूँजीवादी चुनावों के ज़रिये ही व्यापक मेहनतकश आबादी को बेरोज़गारी, महँगाई, भ्रष्टाचार, भूख और ग़रीबी से आज़ादी नहीं मिल सकती है। ऐसा तो उस इंक़लाब के ज़रिये ही सम्भव है, जिसकी बात शहीदे–आज़म भगतसिंह ने की थी और जिस क्रान्ति के फलस्वरूप समूचे उत्पादन, राज–काज और समाज के ढाँचे पर सच्चे मायने में मज़दूरों–मेहनतकशों का हक़ होगा। लेकिन यह भी सच है कि मौजूदा व्यवस्था की सीमाओं को उजागर करने, इसके जनविरोधी चरित्र का पर्दाफ़ाश करने और क़ानूनसम्मत अधिकारों को भी एक हद तक हासिल करने के लिए मज़दूरों–मेहनतकशों के स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष को चुनावों में पेश करना ज़रूरी है। पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर होने वाले चुनावों को देखें तो देश के करीब 75 फीसदी औद्योगिक व खेतिहर मज़दूरों तथा ग़रीब किसानों की संसदीय व्यवस्था में कोई नुमाइन्दगी नहीं है। पिछले 70 वर्षों में हम देख चुके हैं कि कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, आम आदमी पार्टी, व नकली लाल झण्डे वाली संसदीय वामपंथी पार्टियाँ वास्तव में पूँजीपति वर्ग के ही अलग–अलग हिस्सों की नुमाइन्दगी करती हैं। मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी के पास चूँकि कोई विकल्प नहीं होता इसलिए वह कभी इस तो कभी उस चुनावी पूँजीवादी पार्टी को वोट देने को मजबूर हो जाती है। जब लोग कांग्रेस के शासन से ऊब जाते हैं, तो कांग्रेस को उसकी कारगुज़ारियों की सज़ा देने के लिए भाजपा को वोट दे देते हैं और जब भाजपा की पूँजीपरस्त नीतियों से ऊब जाते हैं तो उसे सज़ा देने के लिए कांग्रेस को वोट दे देते हैं। लेकिन इससे मज़दूरों के वर्ग हितों पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता और उन्हें वे हक़ भी नहीं हासिल हो पाते जिनका वायदा पूँजीवादी व्यवस्था में किया जाता है, जैसे कि आठ घण्टे का कार्यदिवस, न्यूनतम मज़दूरी, रोज़गार की गारण्टी, आवास का अधिकार, सबको समान शिक्षा का अधिकार, साफ़–सफ़ाई व साफ़ पीने के पानी का हक़ और हमारे अन्य जनवादी व नागरिक अधिकार। हक़ मिलना तो दूर, देश की विशाल मेहनतकश आबादी के जीवन के ये बुनियादी सवाल राजनीति के मुद्दे भी नहीं बन पाते हैं। इसका एक अहम कारण यह है कि समाज के हर क्षेत्र में मज़दूर वर्ग के स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष की मौजूदगी ही नहीं है।
साभार: बिगुल