(इंडियन एक्सप्रेस की मुख्य संवाददाता सौम्या लखानी ने दिल्ली के उन मज़दूरों पर एक लंबी स्टोरी की है जो भारी मशीनों पर काम करते हैं और बिना सुरक्षा उपकरणों के अपने हाथ पैर गंवा देते हैं। दिल्ली देश की राजधानी है। इससे ये अंदाज़ा लगाना सहज होगा कि अगर यहां ये हाल है तो बाकी देश में क्या हाल होगा। इस लंबे अंग्रेज़ी लेख का अनुवाद किया है पत्रकार नवीन ने। ये रिपोर्ट 20 अगस्त 2018 को इंडियन एक्स्प्रेस में प्रकाशित हुई थी।)
देश की राजधानी दिल्ली का नाम सुनकर सियासत, शान-ओ-शौकत और भीड़ का चित्र जेहन में उभरकर आता है लेकिन एक और तस्वीर है जो रोजगार के एवज़ में अपंग इंसानों की क़तार खड़ी कर रही है।
दिल्ली के औद्योगिक इलाके वज़ीरपुर और मायापुरी में मशीनें कभी नहीं रुकतीं, मशीनों की बेसुध रफ्तार को सिर्फ कारीगर के पिसते मांस और टूटती हड्डियां ही क्षणभर के लिए रोक सकती हैं।
दरअसल दिल्ली के औद्योगिक इलाके मायापुरी और वज़ीरपुर में प्लास्टिक, लोहे की क्षणें, कार्डबोर्ड, कपड़े, डेनिम, शर्ट के कॉलर्स और लकड़ी के छोटे-बड़े सारे काम होते हैं।
रोजगार की तलाश में आए लोग यहां काम करते हैं और अपना भरण पोषण करते हैं।
जिंदगी के पहिए चलाने के मकसद से यहां काम कर रहे लोगों में अक्सर कई लोग ख़तरनाक़ और भारी भरकम मशीनों की जद में आकर अपनी अंगुली या हाथ गंवा देते हैं।
हालात इतने भयावह हैं कि जिस जगह से लोगों ने नौकरी शुरू की, अपंग होने के बाद वहां पूरी दिहाड़ी तक नहीं कर पा रहे हैं।
2012 में पत्नी और चार बच्चों के साथ उत्तर प्रदेश के बदायूं से दिल्ली आए नरेश की कहनी कुछ ऐसी ही है।
रोज के 100 से अधिक बर्तन बनाने वाली एक कंपनी में काम करने के दौरान नरेश, पॉवर प्रेस मशीन चलाने के दौरान दो अलग-अलग घटानाओं में अपने हाथ की तीन से ज्यादा अंगुलियां गंवा चुके हैं।
इस घटना के बाद शारीरिक और अर्थिक तौर पर परेशान नरेश बताते हैं कि इस घटना के दो महीने के बाद उनके परिवार को वापस अपने गांव लौटना पड़ा।
फैक्ट्री से नरेश दिन के चार सौ रुपए कमाते थे लेकिन इस घटना के बाद वह अपने हाथों को पूरी बांह की शर्ट पहनकर छुपाते हैं।
घटना के बाद ना ही उन्हें कोई आर्थिक मदद मिली ना ही कोई पक्की नौकरी। वज़ीरपुर के सड़कों पर काम की तलाश में खड़े नरेश को छोटे-मोटे कामों से गुजारा करना पड़ता है।
दिन कभी फाके में गुजरता है तो कभी कभार 200 रुपए तक का काम मिल जाता है।
वक्त और फैक्ट्रियों के बेपरवाह रवैये का शिकार सिर्फ नरेश ही नहीं हैं, उनके जैसे दर्जनों लोग औद्योगिक इलाकों की सड़कों पर काम की राह तलाशते मिल जाएंगे।
दिल्ली इस्पात उद्योग मज़दूर यूनियन के सदस्य भास्कर बताते हैं कि वज़ीरपुर इस्पात उद्योग का केंद्र है, अपंग हो चुके 10 में से हर 6 मजदूर इस मशीनी घटना का शिकार है।
यहां राह चलते कई वर्कर आपको अमूमन इस घटना के शिकार हुए मिलेंगे।
घटना के शिकार हुए इन मजदूरों से कंपनियों को कोई हमदर्दी नहीं है। पलक झपकते ही मशीनों के जद में आने की तरह ही मजदूरों को भी उसी रफ्तार से बदला जाता है।
अपंग होने के बाद मुआवजा तो दूर, कंपनियां उनकी जगहों पर दूसरे मजदूर रख लेती हैं। 50 वर्षीय कमलेश के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ।
10 साल पहले मशीन चलाने के दौरान बाएं हाथ की 4 अंगुलियां कट जाने के बाद वो नौकरी और घर सबकुछ खो चुके हैं।
एक घटना से सबकुछ बदल गया। कंपनियों के लिए यह कोई घाव नहीं बल्कि असमर्थता है।
मशीनी घटना का शिकार होने के बाद कंपनियां उन्हें अपने इस्तेमाल के लायक नहीं समझतीं और उन्हें काम देने से मना कर देती हैं।
हालात इतने दयनीय हैं कि अस्पताल में इलाज के लिए खड़े कमलेश के अंगुलियों में कीड़े रेंग रहे हैं।
इलाज के लिए उनके साथ आईं उनकी चचेरी बहन कहती हैं कि “घटना के बाद ठेकेदार ने इलाज के लिए पैसे तक नहीं दिए, कमलेश का हाथ सड़ रहा है उनके हाथ से बदबू आ रही है, हमारे पास पैसे नहीं हैं हम आगे क्या करें?”
दिल्ली के नौ लेबर वेलफेयर ऑफिसों में से एक अशोक विहार स्थित ऑफिस की कमिश्नर अनिता राना बताती हैं कि “हर महीने ऐसे 20 मामले सामने आते हैं, जिसमें हाथ-पैर कट जाना या करेंट से झुलसने के मामले होते हैं।”
ज्यादातर मामले ट्रेड यूनियन से आते हैं। बताया जाता है कि मजूदरों को इन मशीनों को चलाने का सही प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है जिसकी वजह से वो इन घटनाओं का शिकार होते हैं।
उनके अनुसार, “इसके अलावा मशीनों की रफ्तार कम ना हो इस वजह से मशीनों से सेंसर हटा दिए जाते हैं जिसके चलते मशीनों की जद में मजदूरों के आने पर भी मशीन रुकती नहीं और उनकी जिंदगियां लील जाती है या जिंदगी को बदतर बना देती है।”
वहीं एक अन्य अधिकारी के मुताबिक, “ईएसआई (मेडिकल इंश्योरेंस) ना होने के बाद ही मजदूर कंपनी से मुआवजे की मांग कर सकता है। ऐसा होने पर ही उन्हें सरकारी अस्पताल भेजा जाता है जहां एक पैनल उनके अपंग होने की जांच करता है।”
कर्मचारियों के क्षतिपूर्ति अधिनियम 1923 के मुताबिक, ‘एक हाथ की दो अंगुलियों का कट जाना 20 प्रतिशत की असमर्थता है, तीन अंगुलियों के कटने पर 30 और पांचों अंगुलियों या हाथ के कट जाने पर मजदूर को 50 प्रतिशात यानी आधे अपाहिज की श्रेणी में रखा जाता है और उस आधार पर मुआवजा तय होता है।’
मौत हो जाने पर मुआवजा मिलना आसान है। अगर मजदूर घटना से अपनी पूरी आजीविका खत्म होने की बात कहता है तो कंपनी से पूरा मुआवजा देने की मांग की जा सकती है।
ऐसे ही घटना के शिकार अरुण कुमार खुद को इसी श्रेणी का हकदार बताते हैं।
एक जनवरी 2016 की रात फैक्ट्री में मना करने के बावजूद मशीन संचालक की गैर मौजूदगी में उनसे मशीन चलवाई गई।
उन्हें मशीन को चालू करना तो बताया गया लेकिन बंद करना नहीं। उस रात उन्होंने अपने दांए हाथ की दो अंगुलियों को खो दिया।
उन्हें इस घटना के बाद कोई मुआवजा नहीं मिला इसके इतर उन्हें उनकी 4,800 रुपये की मजदूरी भी घटना के 20 दिन बाद मिली।
भारतीय ट्रेड यूनियन महासंघ के जनरल सेक्रेटरी राजेश कुमार के मुताबिक, अरुण को नियमत: 1,30,963 रुपए मिलने चाहिए थे।
अरुण को इस घटना के दो महीने बाद ही नौकरी से निकाल दिया गया। कंपनी के लिए वह किसी काम के नहीं बचे थे।
दो साल बाद अरुण की जिंदगी पटरी पर लौटी, वह फिलहाल दर्द से कराहते हुए रिक्शा चलाकर जीवन यापन कर रहे हैं।
अरुण जैसे कई मजदूरों का लेबर कोर्ट में केस लड़ रहे राजेश कहते हैं, “असल दिक्कत अपंग होने की श्रेणी में है। दो अंगुलियों का कट जाना देखने और सुनने में भले मामूली लगता हो लेकिन यह जिंदगी तबाह कर देता है। ऐसी घटना के शिकार मजदूर किसी भी अन्य काम के लायक नहीं रह जाते हैं।”
कंपनियां नियम कायदों और मुआवजा देने से बचने के लिए मजदूरों की जिंदगी दांव पर लगाकर उन्हें प्राइवेट अस्पतालों में फौरी इलाज दिलाकर अपना पीछा छुड़ा लेती हैं।
दिल्ली के मायापुरी में प्लास्टिक और कार्डबोर्ड काटने का काम होता है। पावर प्रेस मशीनें अमूमन यहां लगातार चलती रहती हैं।
यहां कि एक फैक्ट्री से लगभग 15 मिनट की दूरी पर एक इएसआई अस्पताल है।
यहां के डॉक्ट बताते हैं, “हर हफ्ते हाथ पांव कटने या पिस जाने के 3 से 5 मामले आते हैं। हाथ या पैर की हड्डियां बूरी तरह से फ्रैक्चर हो चुकी होती हैं।”
उन्हें ऑपरेट करके या के-वायर लगाकर ठीक करना पड़ता है कभी-कभी मजदूरों के हाथ-पैर काटने तक पड़ जाते हैं।
भारी मशीनों को चलाने के दौरान मजदूरों के साथ ऐसी घटना होती हैं।
ऐसी भयानक दुर्घटना के बाद घटना के शिकार मजदूर एक जग तक नहीं उठा पाते हैं।
उनसे उनकी सामान्य जिंदगी छिन जाती है। ऐसे में काम पर दोबारा वापस लौटना बहुत दूर की बात है।
देश की राजधानी में औद्योगिक इलाके
मायापुरीः प्लास्टिक, आइटम, कार्डबोर्ड कार्टून, मशीन पार्ट आदि का उत्पादन।
वज़ीरपुरः स्टील के बर्तन, लोहे की रॉड, लोहे के दरवाजे बनाने वाले उद्योग।
करावल नगरः डेनिम और शर्ट के आउटसोर्स वाले काम जैसे बांह, कॉलर आदि बनाना।
ओखलाः कपड़े और कार्डबोर्ड कार्टून बनाने वाले उद्योग।
बवानाः प्लास्टिक आइटम और डेनिम की फ़ैक्ट्रियां।
नरायनाः कपड़े, कार्डबोर्ड आइटम।
कीर्ति नगरः लड़की के फर्नीचर उद्योग।
मंगोलपुरीः जूतों के कारखाने।
सुल्तानपुरीः जूतों के कारखाने।
पीरागढ़ीः जूतों के कारखाने।
आनंद पर्बतः मशीनों के पार्ट्स बनाने वाले उद्योग।
पटपड़गंजः कांच की चूड़ियां, स्टील के बर्तन, पटाखों के कारखाने।
नरेलाः प्लास्टिक आइटम, कार्डबोर्ड कार्टून, डेनिम, जूते के उद्योग।