संपादकीय एक : मौत के मुंह में खनन
जनता की स्मृति में कोई भयानक घटना कैसे दर्ज रहती है? जब हम कठुआ की घटना को याद करते हैं तो हमें याद आता है कि पुलिसकर्मियों समेत पुरुषों के एक समूह ने आठ साल की बच्ची का अपहरण किया, उसे प्रताड़ित किया, उसका बलात्कार किया और उसकी हत्या कर दी. हमें यह समाज की नाकामी के तौर पर याद रहेगा. इस घटना के कसूरवार एक बच्ची के खिलाफ सांप्रदायिकता से प्रेरित होकर काम कर रहे थे. इस बच्ची को आदिवासी और मुस्लिम होने के लिए शिकार बनाया गया. इस भयानक घटना में कोई कसर रह गई थी, शायद इसलिए ही हिंदू एकता मंच ने कसूरवारों के समर्थन में मार्च निकाला.
इस घटना ने हम सबके सामने एक समाज और एक राष्ट्र के तौर पर कई असहज सवाल खड़े किए? पुलिस ने जो चार्ज शीट दायर की है, उसमें मौजूद विवरण और सोशल मीडिया पर मौजूद उस बच्ची की मासूम तस्वीर ने इस घटना को लोगों के दिमाग में और मजबूती से दर्ज किया. उस बच्ची का चेहरा एक प्रतीक बन गया जिसके आसपास न्याय की मांग उठाई गई.
कुछ महीने पहले की इन बातों के बाद यह लग रहा है कि कठुआ कि याद मिटती जा रही है. जो भयानक घटनाएं हमें झकझोरती हैं, हम उन्हें भी भूलने लगते हैं. क्योंकि जनता की स्मृति के आधार पर राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पहचान बनती है और विमर्श तय होता है. उन घटनायों का याद किया जाना विमर्श को दिशा देने का काम करता है.
इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि जो बातें सत्ताधारी दल के अनुकूल होती है, वही जनता की स्मृति में बनी रहती है. कठुआ को याद रखा सत्ताधारी दल के लिए अनुकूल नहीं है. न तो इसमें विपक्ष को कोई लाभ दिखता है. किसी भी दल के लिए कठुआ को वोट में बदलना आसान नहीं है.
हालांकि, जन स्मृति तय करने का काम सिर्फ सत्ताधारी ही नहीं करते. बल्कि यह सरकार, मीडिया और नागरिकों के संवाद पर भी निर्भर करता है. सरकार जिन बातों को कई बार भूलना चाहती है, वे कई बार आम लोगों के हित वाली बातें होती हैं. कठुआ को याद करके न्याय की मांग बनाए रखी जा सकती है. इसलिए सिविल सोसाइटी को इसे याद रखना चाहिए. लेकिन याद करने की प्रक्रिया से संबंधित कुछ चिंताएं भी हैं. क्या किसी घटना को याद कराने का तरीका यह है कि उस घटना से संबंधित नई सूचनाओं को सामने लाया जाए या फिर उसे ऐतिहासिक महत्व को रेखांकित किया जाए. सवाल यह उठता है कि याद कराने की जिम्मेदारी किसकी हो?
कुछ लोग कह सकते हैं कि ये जिम्मेदारी मीडिया की है और मीडिया इसमें नाकाम नहीं रहा. पांच अक्टूबर को मीडिया में यह खबर आई कि कैसे सुप्रीम कोर्ट ने एक आरोपी की सीबीआई जांच की याचिका को खारिज किया. लेकिन जैसे–जैसे वक्त गुजरता जा रहा है, कठुआ हमारी सार्वजनिक स्मृति में धुंधलाता जा रहा है. कठुआ हमारी राष्ट्रीय पहचान के विमर्श का हिस्सा स्वाभाविक तौर पर नहीं बनता. यह घटना शर्म का प्रतीक है इसलिए राष्ट्र निर्माण से संबंधित जिन प्रतीकों का सहारा लिया जा रहा है, उसमें यह फिट नहीं बैठता.
दिल्ली में हुआ 16 दिसंबर, 2012 का ज्योति सिंह मामला जिस तरह से संस्थागत स्मृति का हिस्सा बना, उस तरह से कठुआ मामला नहीं बन सका. ऐसा क्यों? दिल्ली की घटना की तरह कठुआ मामला भी हमें झकझोरने वाला और आत्मंथन को विवश करने वाला था.
क्यों किसी एक नाकामी को याद रखा जाता है और दूसरी नाकामी को भूला दिया जाता है? क्या ऐसा इसलिए क्योंकि एक पर सांस्थानिक तौर पर अधिक ध्यान दिया गया और दूसरे पर नहीं? या फिर इसलिए कि एक घटना शहर में हुई और दूसरी गांव में? या फिर कहीं ऐसा तो नहीं की पीड़ित की सामाजिक–राजनीतिक स्थिति इसकी वजह है? कठुआ मामले में सांप्रदायिक अपराध की बात यौन अपराध के तहत दब गई.
हालांकि, यह जरूरी है कि हम सामूहिक तौर पर इसे न भूलें क्योंकि इसके बगैर सार्वजनिक विमर्श में सार्थकता नहीं रहेगी. कठुआ जैसी घटनाएं जिस आत्मंथन को शुरू करती हैं, वह जारी रहनी चाहिए. क्योंकि अगर हम भूल जाते हैं तो हम उसी विमर्श का साथ देते हैं जो हमारे नाम पर बनाया जा रहा है. अगर हम भूल जाते हैं तो हम ऐसे अपराधों के सामान्यीकरण के गुनहगार हो जाते हैं. इसलिए याद रखना हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है.
संपादकीय दो : न्यायपालिका का खोखलापन
इस साल फिर जनवरी का महीना सर्वोच्च न्यायालय के लिए उतार–चढ़ाव वाला रहा. 2018 में चार वरिष्ठ जजों ने उस समय के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ एक तरह का विद्रोह कर दिया था. 2019 के जनवरी में से उन चार में से एक न्यायमूर्ति रंजन गोगोई को कई विवादों के केंद्र में ला दिया है. वे अभी भारत के मुख्य न्यायाधीश हैं. हालिया विवादों ने न सिर्फ न्यायपालिका की विश्वसनीयता और प्रतिष्ठा पर सवाल खड़े किए हैं बल्कि एक संस्था के तौर पर भी न्यायपालिका पर सवाल उठाए हैं.
पहला विवाद उस उच्च स्तरीय समिति के उस निर्णय से जुड़ा हुआ है जिसमें सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा को 2-1 के बहुमत से निलंबित करने का फैसला हुआ. इसमें न्यायमूर्ति एके सिकरी शामिल थे. सिकरी सरकार की राय से सहमत हो गए जिसे प्रधानमंत्री ने व्यक्त किया. अगर यह मान भी लें कि सिकरी का निर्णय सरकार द्वारा उन्हें राष्ट्रमंडल सचिवालय के अपील प्राधिकरण के लिए मनोनीत किए जाने से नहीं जुड़ा था तो भी यह सवाल उठता है क्या न्यायपालिका को इस बात की चिंता नहीं करनी चाहिए कि न्याय सिर्फ होना ही नहीं चाहिए बल्कि यह होते हुए भी दिखना चाहिए. न्यायपालिका खुद इस बात को बार–बार दोहराती है. मुख्य न्यायाधीश या उनके प्रतिनिधि को उच्च स्तरीय में शामिल किए जाने के पीछे सोच यही थी कि निष्पक्षता रहे. यह अजीब लग सकता है लेकिन एक गोगोई के निर्णय से छूटी छोटी संभावना से भी न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर बुरा असर पड़ा है.
न्यायमूर्ति राजेंद्र मेनन और प्रदीप नंदराजोग को नामित किए जाने से संबंधित विवादास्पद निर्णय भी सामने आया. इससे इस व्यवस्था का काफी समर्थन करने वाले भी इसका बचाव नहीं कर पा रहे हैं. न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और दिनेश मेनन को नामित करने पर पुनर्विचार का विषय तथ्यों पर कम आधारित दिखता है. यह कहना उचित नहीं लगता कि काॅलेजियम फिर से बना इसलिए विचार–विमर्श फिर से होना चाहिए. इस निर्णय ने कई तरह की अटकलों की संभावना को बल दिया है.
इस मामले में तो काॅलेजियम की नाकामी भी दिख रही है. खन्ना और महेश्वरी के प्रोन्नयन की कोई वजह नहीं बताई गई. मेनन और नंदराजोग को खारिज किए जाने की भी कोई वजह नहीं बताई गई. इन दोनों की सिफारिश करने वाले शुरुआती प्रस्ताव को सार्वजनिक नहीं किया गया. पुनर्विचार के लिए जो आधार बनाया गया, उसे भी जाहिर नहीं किया गया. सुप्रीम कोर्ट के एक मौजूदा ने जज ने जब सवाल उठाया तो कई सेवानिवृत्त जजों, वकीलों और नागरिकों ने सवाल उठाए लेकिन अदालत या मुख्य न्यायाधीश की तरफ से इसके जवाब में एक शब्द भी नहीं कहा गया.
इससे यही पता चलता है कि नियुक्ति की पूरी प्रक्रिया में मनमानी, पारदर्शिता की कमी और जवाबदेही की कमी रही. यही आरोप पूर्व मुख्य न्यायाधीश दीपक मिसरा पर चार जजों ने 12 जनवरी, 2018 को प्रेस वार्ता करके लगाए थे. हालांकि, संदर्भ थोड़ा अलग था.
खन्ना और महेश्वरी का प्रोन्नयन इकलौता ऐसा विवाद नहीं है जो जनवरी, 2019 में न्यायपालिका से संबंधित थी. कई उच्च न्यायालयों में जिस तरह से जजों की प्रोन्नति हुई, उससे भी काॅलेजियम की स्वतंत्रता पर सवाल उठे. इनमें से अधिकांश ऐसे निर्णय थे जिन पर पुनर्विचार के लिए विधि और न्याय मंत्रालय ने एक से अधिक मौकों पर कहा था. मेमोरेंडम आॅफ प्रोसिजर का पालन करते हुए पुनर्विचार के लिए ठोस आधार नहीं दिए गए. इसके बावजूद काॅलेजियम ने केंद्र सरकार के 11 में से 10 नामों को खारिज करने का प्रस्ताव मान लिया.
गोगोई के नेतृत्व वाले कालेजियम के इन निर्णयों से कालेजियम व्यवस्था को सही ठहराने के सुप्रीम कोर्ट के तर्कों का माखौल उड़ता है. अदालत ने बार–बार इसे जजों की नियुक्ति का सबसे अच्छी प्रक्रिया बताया है. 2015 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाने से संबंधित संविधान संशोधन को खारिज करते हुए अदालत ने चौथे जज मामले में बताया था कि कैसे कालेजियम व्यवस्था के तहत न्यायपालिका की स्वायत्ता सुनिश्चित होती है. न्यायमूर्ति मदन लोकुर के निर्णय को पढ़ते हुए यह लगता है कि जजों की नियुक्ति के लिए यही एकमात्र संविधान सम्मत व्यवस्था हो सकती है. इसमें जिन बदलावों की जरूरत है, वे बेहद मामूली हैं. पिछले दो सालों में जजों की नियुक्तियों और स्थानांतरणों से कोई कसर रह गई थी तो उसे गोगोई के नेतृत्व वाली कालेजियम ने पूरा कर दिया है और यह साबित कर दिया है कि कालेजियम व्यवस्था का अब बचाव नहीं किया जा सकता.
जनता के स्तर पर की जाने वाली छानबीन और सरकारी दबाव में न्यायपालिका की कमजोरियां उजागर हो गई हैं. यह किसी एक व्यक्ति की नाकामी नहीं हैं और न ही कुछ लोगों के गलत निर्णय से संबंधित है. यह एक और उदाहरण है जिससे एक संस्था की कमजोरियों का पता चलता है. दुर्भाग्य यह भी है कि इस संस्था की अगुवाई एक ऐसे व्यक्ति कर रहे हैं जो इन आंतरिक कमियों से अवगत रहे हैं और जिन्होंने इन्हें ठीक करने के वादे किए थे..