नई दिल्ली में भूख से तीन बच्चियों के मर जाने की विचलित करने वाली खबर कई सारे सवाल खड़े करती है। सवाल न सिर्फ आजादी के 70 साल बाद भी अपने नागरिकों को भूख से सुरक्षित कर पाने में सरकार की नाकामी पर बल्कि उस विकास के मॉडल पर भी जिसे भारत अपनाता प्रतीत होता है. मानसी, शिखा और पारुल क्रमशः आठ, चार और दो साल की थीं जब 24 जुलाई के दिन उन्हें मृत अवस्था में अस्पताल लाया गया. पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में ये जाहिर हुआ कि ये भूख से हुई मौतें थीं. इन बच्चियों का पिता गायब है और मां मानसिक रूप से असंतुलित अवस्था में है जिसकी वजह से उसे अब अस्पताल में भर्ती करवा दिया गया है. ये ध्यान में लाना विडंबना भरा है कि भारत ने औद्योगिक पूंजीवाद से उपभोक्ता पूंजीवाद में प्रवेश कर लिया है. तो अब सवाल ये है कि – कौन क्या उपभोग कर रहा है और कितना? खाद्य और सेवा उद्योग में होने वाला विकास एक संतोषजनक तस्वीर पेश करता है लेकिन क्या इस ‘उपभोक्ता भारत’ को भूख से होने वाली इन मौतों की जानकारी है?
इन बच्चों की मौत से पहले भी ऐसी कई रिपोर्ट आई हैं जो बीते छह महीनों में कथित रूप से भुखमरी से हुई मौतों के बारे में थीं. ये रिपोर्ट ज्यादातर झारखंड से थीं लेकिन इनमें कर्नाटक, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश जैसे अन्य राज्य भी शामिल थे. इनमें से हर मामले में तथ्य-ढूंढ़ने वाली रपटों और अखबार की खबरों ने जरूरतमंद परिवारों तक उनके हक पहुंचाने में व्यवस्था की खामियों को दर्ज किया है. राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम में जो प्रावधान हैं उनमें सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए रियायती दरों पर अनाज, स्कूल जाने वाले बच्चों के लिए स्कूली भोजन, मातृत्व के हक और आंगनवाड़ी केंद्रों के माध्यम से छोटे बच्चों को पूरक पोषण सुनिश्चित करना शामिल है. अगर दिल्ली के ताजा मामले की बात करें तो उसमें सबसे बड़ी वाली बच्ची को, बच्चों के निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा अधिकार अधिनियम के अंतर्गत स्कूल में होना चाहिए था और नियमित रूप से मध्यान्ह भोजन मिलना चाहिए था, वहीं बाकी दो बच्चियों को किसी आंगनवाड़ी केंद्र से पूरक पोषण मिलना चाहिए था. दिल्ली रोज़ी रोटी अधिकार अभियान द्वारा तैयारी की गई तथ्य-खोजी रिपोर्ट में ये खुलासा किया गया है कि जहां संबंधित इलाके में ये सब सेवाएं उपलब्ध थीं, वहीं मरने से पहले के महीनों में इन बच्चियों और उनके माता-पिता तक, इनमें से किसी सेवा की पहुंच नहीं थी. माना जा रहा है ऐसा इसलिए क्योंकि इन लोगों के लिए इन सेवाओं में नामांकित होना बहुत मुश्किल था क्योंकि वे प्रवासी थे और उनके पास आवश्यक दस्तावेज नहीं थे. या शायद इसलिए क्योंकि दिल्ली में राशन कार्डों का कोटा पहले ही वितरित किया जा चुका है.
इस मामले के सटीक ब्यौरों की अभी भी जांच की जा रही है. अब तक भूख से जितनी भी मौतें रिपोर्ट की गई हैं उनमें दस्तावेजों में मिलता है कि नौकरशाही द्वारा पैदा की रुकावटों और सरकार द्वारा लादी गई संसाधनों की बाधाओं की वजह से राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत मिलने वाले हक और सामाजिक सुरक्षा पेंशन (उम्रदराज/अकेली महिलाओं) उन्हें नहीं दी गई. लंबी अवधि तक भूखे रहने से हुई मौत के मामलों में ये तथ्य उजागर होता है कि सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं की इतनी विस्तृत व्यवस्था की उपलब्धता होने के बावजूद सबसे ज्यादा हाशिये पर पड़े लोगों को इससे बाहर रखा जा रहा है. अभी जो योजनाएं मौजूद हैं उन्हें लागू करने के तंत्र को कसने की जरूरत है. इसके अलावा ऐसी पहलों को पूरे देश में दोहराए जाने की जरूरत है जिन्हें दूसरे राज्यों में आजमाया गया है और सफल पाया गया है – जैसे, शहरी इलाकों में सामुदायिक रसोइयां, आदिवासी व अन्य इलाकों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए विभिन्न खाद्य टोकरियां, छुट्टियों के दौरान भी स्कूली भोजन का प्रावधान वगैरह. इसके अलावा आधार प्रमाणीकरण जैसी अनिवार्य जरूरतों की मंजूरी नहीं दी जानी चाहिए जो कि भूख से मौतों वाले इन बहुत से मामलों में उन लोगों को बाहर करने का बुनियादी कारण बनी. सामाजिक सुरक्षा के लिए वाकई में एक ऐसी सच्ची सार्वभौमिक व्यवस्था को लाए जाने की जरूरत है जो सबसे कमजोर समुदायों तक खुद पहंचने पर विशेष ध्यान दे.
एक ओर जहां सरकार द्वारा प्रदान किए जाने वाले हकों के तंत्र को दुरुस्त करने की ज़रूरत है, वहीं इस आत्म-चिंतन की भी आवश्यकता है कि पिछले दो दशकों में देश के ऊंचे आर्थिक विकास के बावजूद क्यों ऐसी स्थिति आ खड़ी हुई है जहां लोग भूख और भुखमरी से मर रहे हैं. हमारे मौजूदा आर्थिक मॉडल में जो गहरे में पैठी हुई असमानता है उसे हमें स्वीकार करने की जरूरत है जिसमें कुछेक लोगों को तो फायदा पहुंच रहा है लेकिन नतीजतन बहुत से दूसरे लोगों को सम्मानजनक रोजगार के अवसरों और मूलभूत आजीविका की सुरक्षा से वंचित किया जा रहा है. दिल्ली में हुआ ये एक मामला ही ऐसे लाखों भारतीयों की कमजोर स्थिति को सामने लाकर रख देता है जो आजीविका की सुरक्षा के अभाव में जोखिम भरी जिंदगी जी रहे हैं. इन तीन लड़कियों के पड़ोसियों को ये तो पता था कि इनका परिवार संकट से गुजर रहा है लेकिन उन्हें संभवतः ये पूर्वानुमान नहीं था कि इन बच्चियों की मौत हो जाएगी. यहां अपनी अनुपस्थिति की वजह से सरकार ध्यान जुटा रही है. इन बच्चियों के साथ जो हुआ है वो कहानी देश के लाखों दूसरे लोगों में से किसी की भी हो सकती थी.
ये बहुत जरूरी है कि संसाधनों के समान वितरण के मसलों पर एक राष्ट्रीय बहस हो. अपनी ऊर्जा ये स्थापित करने में लगाने के बजाय कि ये मौतें भुखमरी की वजह से हुई थी या नहीं, सरकार और राजनीतिक दल कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि एक ऐसी बहस की शुरुआत करें और अपने रचनात्मक उपाय इस दिशा में सुझाएं. यहां जिन मामलों का जिक्र हो रहा है उनमें हरेक में ये बिलकुल साफ है कि मरने वाले लोग अत्यंत गरीबी में जी रहे थे और कई कारणों से उनकी पहुंच खाद्य, पोषण व स्वास्थ्य सेवाओं तक नहीं थी. इन मामलों की इस स्थिति में जवाबदेही ज़रूर तय होनी चाहिए. ये हमेशा की तरह चलने वाले काम की तरह किनारे नहीं सरकाया जा सकता है.