खेती-किसानी का संकट आजकल आम चर्चा का विषय है। मजदूर वर्ग की बेहद खराब हालत पर पूरी तरह से चुप्पी साधने वाला पूंजीवादी प्रचारतंत्र भी इस संकट की कभी-कभी चर्चा किया करता है। सत्ताधारी पूंजीवादी पार्टियों की इस पर चुप ही रहती है पर विपक्षी पार्टियां उन्हें घेरने के लिए इस मुद्दे को उठाती रहती हैं। यह अलग बात है कि सत्ता में आते ही दोनों की भूमिका बदल जाती है।
जब भी खेती-किसानी के संकट की चर्चा होती है तो एम.एस.स्वामीनाथन रिपोर्ट का जिक्र जरूर आता है। कहा जाता है कि इस संकट के समाधान के लिए स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू किया जाना चाहिए। खासकर सरकारी वामपंथी पार्टियां इसे नारे की तरह उछालती रहती हैं।
लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? क्या वास्तव में इससे खेती का वर्तमान संकट हल हो जायेगा?
एम.एस.स्वामीनाथन देश के पूंजीवादी दायरे में ‘हरित क्रांति’ के जनक माने जाते हैं और इस दायरे में ‘हरित क्रांति’ का काफी ऊंचा मूल्यांकन किया जाता है। कहा जाता है कि इस ‘हरित क्रांति’ ने देश की खेती को एक नई दिशा दी और उसे वहां पहुंचाया जहां देश 1960 के दशक के गंभीर खाद्यान्न संकट से उबर पाया।
संप्रग सरकार जब 2004 में अस्तित्व में आई तब उसने साल के अंत में इन्हीं स्वामीनाथन के नेतृत्व में एक आयोग का गठन किया। इसे राष्ट्रीय किसान आयोग का नाम दिया गया। इस आयोग ने 2006 के अंत तक कुल पांच रिपोर्ट सरकार के सामने पेश कीं। अंत में उसने राष्ट्रीय किसान नीति का एक मसौदा भी पेश किया।
स्वामीनाथन रिपोर्ट का सारतत्व क्या है? उसकी मूल दिशा क्या है? इसे चार बिंदुओं के इर्द-गिर्द समेटा जा सकता हैः-
1- खेती योग्य जमीन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थोड़े से लोगों के हाथ में सिमटा हुआ है जबकि खेती से जुड़े हुए करीब चालीस प्रतिशत लोग भूमिहीन हैं। इसलिए जमीनों का बंटवारा किया जाना चाहिए। सीलिंग के ऊपर की जमीनों का तथा खाली पड़ी हुई या सरकार के पास मौजूद (सरकारी फार्म आदि) जमीनों का बंटवारा किया जाना चाहिए जिससे कम से कम एक एकड़ जमीन सबके पास मौजूद हो।
2- किसानों को अपनी फसल का उचित दाम मिले इसके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की कुल लागत (खेती की लागत और जमीन का किराया या अपने मालिकाने के मामले में मध्यस्थ ब्याज व मजदूरी या स्वयं खेती के मामले में तदमूल्य मेहनत का दाम) का पचास प्रतिशत ज्यादा दिया जाना चाहिए। इस दाम पर खरीद का सरकारी प्रबंध किया जाना चाहिए। चूंकि ऐसा करने से खाद्यान्न के दाम बढ़ सकते हैं और खाद्यान्न खरीदने वाली एक बड़ी आबादी स्वयं किसानों की ही है इसलिए कम दामों पर खाद्यान्न उपलब्ध कराने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत किया जाना चाहिए। इसके लिए सकल घरेलू उत्पाद का एक प्रतिशत इस पर खर्च किया जाना चाहिए (खाद्यान्न सब्सिडी)।
3- किसानों को कम ब्याज (चार प्रतिशत सालाना) पर कर्ज के साथ खेती की तकनीक, जी.एम. बीज, फसल बाजार में बेचने के लिए आधुनिक तरीकों (कमोडिटी मार्केट आदि) तक पहुंच, फसल बीमा इत्यादि उपलब्ध कराया जाना चाहिए। शहरों में खेती-क्यारी को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
4- पीढ़ी-दर-पीढ़ी विभाजन के साथ प्रति परिवार खेती का रकबा कम होता जा रहा है इसलिए एक ओर तो सहकारिता को बढ़ावा दिया जाना चाहिए, दूूसरी ओर देहातों में गैर-खेती पेशों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। मुर्गी पालन से लेकर मछली पालने और पकड़ने इत्यादि को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। इसी के तहत सब्जी, फल और फूलों की खेती को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
इनके साथ यह रिपोर्ट ‘हरित क्रांति’ के कुप्रभावों से निपटने के बारे में भी बात करती है। रसायनिक खादों, कीटनाशकों के अतिशय प्रयोग तथा भूतलपानी के बेतहाशा इस्तेमाल से उपजी समस्याओं से निपटने के लिए यह ‘जैविक खेती’ को तथा वर्षा के पानी को संरक्षित करने की बात करती है। यह गैर सिंचित क्षेत्रों में वर्षा के पानी के संरक्षण की बात करती है।
ऊपरी तौर पर लगता है कि यदि इस रिपोर्ट को ‘ईमानदारी’ से लागू कर दिया जाये तो भारत की खेती के वर्तमान संकट का समाधान हो सकता है। पर क्या वास्तव में ऐसा है? इसे क्रमवार देखें।
पहले जमीन के बंटवारे का सवाल। जब 1960 के दशक में ‘हरित क्रांति’ की शुरूआत हुई तो वामपंथी दायरों से इसकी सर्वप्रमुख आलोचना यही थी कि यह देश की खेती की मूलभूत समस्या का वास्तविक राजनीतिक समाधान करने के बदले एक तकनीकी समाधान करने की कोशिश है जो तत्कालीन शासक वर्ग अमेरिकी साम्राज्यवादियों के साथ मिलकर तथा किसी हद तक उनके दबाव में कर रहा था। यहां तक कि सरकारी वामपंथी भाकपा-माकपा के पार्टी दस्तावेजों में यह आज भी दर्ज मिल जायेगा।
तब खेती की मूलभूत समस्या का समाधान था जमीनों का बंटवारा। लेकिन यह एक राजनीतिक कदम था क्योंकि इसमें जमीनें पुराने बड़े मालिकों से छीनकर वास्तविक खेतिहरों को दी जातीं। जमीनों के पुराने बड़े मालिक अंग्रेजों के जमाने से ही शासक वर्ग का हिस्सा थे और आजादी के बाद सत्तारूढ़ हुआ शासक वर्ग इनके साथ गठबंधन बनाये हुए था। देहातों में तो जमीनों का यही बड़ा मालिक वर्ग शासक वर्ग था। इनके खिलाफ कदम उठाने का मतलब था भारत के पूंजीपति वर्ग द्वारा स्वयं अपने देहाती सहयोगियों के खिलाफ भूमिहीन व गरीब किसानों को गोलबंद करना। यह गोलबंदी जिस वर्ग संघर्ष की शुरूआत करती वह आगे बढ़कर स्वयं पूंजीपति वर्ग के खिलाफ भी जा सकती थी। तब नेहरू ने इसे लगभग इन्हीं शब्दों में व्यक्त भी किया था।
इसीलिए तब भारत के पूंजीपति वर्ग ने जमीनों के बंटवारे का यह कदम नहीं उठाया। इसके लिए संसद से लेकर विधानसभाओं तक जो भी कानून बनाये गये उनमें जानबूझकर इतने छेद रखे गये कि व्यवहार में लगभग सारी ही जमीनें पुराने मालिकों के पास बनी रहीं। हां जमींदारी उन्मूलन और किरायेदारी कानून के जरिये पुराने बड़े मालिकों को इस ओर ढकेला गया कि वे खेती के पुराने सामंती तौर-तरीकों को छोड़कर नये पूंजीवादी तौर-तरीकों को अपना लें।
इसी के हिस्से के तौर पर ही 1960 के दशक के मध्य में भारत के पूंजीपति वर्ग द्वारा ‘हरित क्रांति’ का रास्ता अपनाया गया। यह भारत के पूंजीपति द्वारा अपने हित में अपनाया गया। एक तकनीकी रास्ता था जो एक राजनीतिक समस्या का सोचा-समझा विकल्प था। अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने अपने हितों के तहत इसमें अपनी भूमिका निभाई। उन्हें खेती की आगतों का बाजार मिलना था। दूरगामी तौर पर यह भारत को समाजवादी रास्ते पर जाने से रोकता था।
इस तरह ‘हरित क्रांति’ के जनक स्वामीनाथन तब भारत के पूंजीपति वर्ग की उस परियोजना का हिस्सा थे जो वास्तव में देश को जमीनों के बंटवारे के सवाल से हटाकर दूसरे रास्ते पर ले जाती थी। यह एक सचेत कार्यवाही थी। ऐसा नहीं था कि तब भारत के पूंजीपति वर्ग की सरकार द्वारा या स्वामीनाथन द्वारा जमीनों के बंटवारे की औपचारिक चर्चा बंद कर दी गयी। यह चर्चा होती रही और आगे भी जारी रही। सरकारों द्वारा गठित तमाम आयोग इस सम्बन्ध में अपनी संस्तुतियां देते रहे। पर इनका महत्व उन कानूनों से ज्यादा नहीं था जो जमीनों के बंटवारे के सवाल पर संसद और विधानसभाओं द्वारा बनाये गये थे तथा जिनसे कुछ भी हासिल नहीं हुआ था। इसीलिए आज भी स्वामीनाथन रिपोर्ट का जमीनों के बंटवारे के सम्बन्ध में सुझाव इससे ज्यादा कारगर नहीं हो सकता। आजादी के सत्तर साल बाद आज अचानक देश का पूंजीपति वर्ग देहातों में जमीनों के बंटवारे का वर्ग संघर्ष नहीं छेड़ सकता। खासकर तब और भी नहीं जब पूरी व्यवस्था में संकट गहराया हुआ हो और पूंजीवादी पार्टियों के प्रति लोगों में गहरी नफरत का भाव हो। यदि महात्मा गांधी, नेहरू और पटेल यह करने की हिम्मत नहीं जुटा पाये तो यह हिम्मत किसी नरेंद्र मोदी और किसी राहुल गांधी में कहां से आ जायेगी?
लेकिन फर्ज कीजिए कि किसी में भी ऐसा साहस आ गया तो? यदि भाकपा-माकपा इतनी ताकतवर होकर सत्ता में आ गई तो?
तो यही होगा कि सारे लोगों को स्वामीनाथन के हिसाब से कम से कम एक एकड़ जमीन मिल जायेगी। पर इससे क्या होगा? आज एक परिवार के पास दो एकड़ सिंचित उपजाऊ जमीन भी महज उसके स्वपोषण का माध्यम बनकर रह गयी है। इससे यह तो हो सकता है कि लोगों का शहरों में पलायन रुक जाये पर यह देहातों की भंयकर कंगाली को समाप्त नहीं कर सकता। पूंजीवाद में हमेशा से ही छोटी व मध्यम खेती घाटे का सौदा रही है। यह स्व-पोषण का माध्यम रही है जिसमें बाजार के मेकेनिज्म के जरिये पूंजीपति वर्ग खेती में पैदा हुआ मुनाफा लूट लेता रहा है। उदारीकरण, वैश्वीकरण के दौर में यह बेतहाशा हो रहा है। बिना इस व्यापक प्रक्रिया पर लगाम कसे इस लूट को नहीं रोका जा सकता और स्वामीनाथन रिपोर्ट उदारीकरण, वैश्वीकरण के व्यापक फ्रेमवर्क में ही बात करती है इसलिए वह इसकी गति पर जरा भी अंकुश नहीं लगा सकती।
यहीं से दूसरे बिंदु पर आया जाये। कहा जा सकता है कि स्वामीनाथन रिपोर्ट न्यूनतम समर्थन मूल्य, सरकारी खरीद व्यवस्था, सार्वजनिक वितरण प्रणाली या खाद्यान्न सब्सिडी इत्यादि के बारे में जो बात करती है वह प्रकारांतर से खेती के मामले में उदारीकरण-वैश्वीकरण की प्रक्रिया पर रोक लगा देती है। इस तरह यह खेती और किसानों की बेहतरी की ओर ले जाती है। पर क्या यह सही है?
भारत विश्व व्यापार संगठन का सदस्य है और विश्व व्यापार संगठन वैश्वीकरण, उदारीकरण की व्यवस्था का एक पूरा ढांचा पेश करता है। इसका सदस्य रहते इस ढांचे से बाहर नहीं आया जा सकता। खेती-किसानी के मामले में यह ढांचा खासकर बहुत कठोर है। इसी के कारण पिछले ढाई दशकों में भारतीय खेती और भी ज्यादा संकट में फंसती गयी है। खेती को पूरी तरह से राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय बाजार के हवाले कर देना, खेती पर सब्सिडी खत्म कर देना तथा सार्वजनिक वितरण प्रणाली को खत्म कर देना सब इसी का हिस्सा है।
सवाल यह है कि क्या भारत का बड़ा पूंजीपति वर्ग खेती-किसानी की खातिर विश्व व्यापार संगठन से बाहर आ जायेगा? क्या उदारीकरण-वैश्वीकरण के दौर में वह देश और दुनिया में जो बेतहाशा लूट कर रहा है, उसे छोड़ देगा? यहां तक कि इसके जरिये वह जो देहातों में लूट कर रहा है, उसे छोड़ देगा? देहातों की भयंकर बदहाली का अंततः उसे ही तो सबसे ज्यादा फायदा हो रहा है।
और यदि देश का बड़ा पूंजीपति वर्ग यह सब नहीं चाहेगा तब फिर इसकी सरकार यह सब क्यों करेगी? देश का बड़ा पूंजीपति वर्ग ही असल में सत्ता में काबिज है। उसके हितों के खिलाफ सरकार कैसे जा सकती है?
कहा जा सकता है कि कभी-कभी सरकारें पूरी व्यवस्था के हित में शासक वर्गों के खिलाफ भी जा सकती हैं। अपवादस्वरूप स्थितियों में ऐसा हो भी सकता है। पर यदि ऐसा हो भी गया तो किसे फायदा होगा?
अभी तक न्यूनतम समर्थन मूल्य, सरकारी खरीद व्यवस्था, सहकारिता और सरकारी सब्सिडी का सारा फायदा धनी किसान और पूंजीवादी फार्मर उठाते रहे हैं। आज भी जब खेती के संकट की बात होती है तो असल में यह प्रमुखतः छोटी-मझोली खेती का ही संकट है। धनी किसान और खासकर पूंजीवादी फार्मर उतने संकटग्रस्त नहीं हैं। बल्कि वे तो छोटे-मझोले किसानों के संकट से फायदा ही उठा रहे हैं। वे देहातों में दुकानदार, साहूकार और आपूर्तिकर्ता के रूप में छोटे-मझोले किसानों को लूट रहे हैं।
ऐसे में यह आगे भी क्यों नहीं होगा कि समर्थन मूल्य, सरकारी खरीद इत्यादि का फायदा पहले की तरह धनी किसान और पूंजीवादी फार्मर ही उठायें? क्या इससे बचने के लिए सरकार खेती के उत्पादन के समस्त खरीद-बेच का जिम्मा ले लेगी? उदारीकरण के दौर मेें क्या खेती के उत्पादों पर पूर्ण सरकारी नियंत्रण कायम हो जायेगा? या सरकार इस मामले में कोई विभेदीकरण की नीति अपनायेगी? यदि गरीबों का राशन भी अन्य तरीकों से पूंजीपति हड़प लेते हैं तो छोटी-मझोली खेती को सरकारी राहत भी धनी किसान और पूंजीवादी फार्मर क्यों नहीं हड़प लेंगे? यह काम जमीनों को सीलिंग से बचाने से ज्यादा आसान होगा।
इस तरह स्पष्ट है कि छोटे-मझोले किसानों को राहत सम्बन्धी योजनाएं या तो उदारीकरण-वैश्वीकरण के इस दौर में लागू नहीं की जा सकतीं या फिर इसका फायदा पहले की तरह धनी किसान व पूंजीवादी फार्मर ही उठा लेंगे। छोटी-मझोली किसानी का संकट पहले की तरह जारी रहेगा। पूंजीवाद में पूंजी द्वारा खेती में छोटी-मझोली किसानी की तबाही को किसी कानून या सरकारी योजना से नहीं रोका जा सकता है।
जहां तक तीसरे बिंदु की बात है। उसके प्रावधानों का हस्र भी उपरोक्त से ज्यादा बेहतर नहीं होगा। यदि किसानों को कम ब्याज पर कर्ज, फसल बीमा तथा अन्य तकनीकी सुविधाएं मिलती हैं तो इसका फायदा कौन उठायेगा? पिछले समयों में जब भी कर्ज माफी हुई तो उसका फायदा बड़े किसानों ने उठाया। इसी तरह बैंकों और सहकारिताओं से सारे कर्ज का फायदा ये ही उठाते हैं। छोटे-मझोले किसानों को तो बस जूठन ही नसीब होती है। समाज की वर्गीय संरचना और सत्ता संरचना को देखते हुए इससे भिन्न की उम्मीद नहीं की जा सकती।
रही चौथे बिंदु की बात तो खेती से अलग-अलग, भांति-भांति के व्यवसाय देहातों में बिना सरकारी प्रोत्साहन के ही फल-फूल रहे हैं। वे देहातों में पूंजीवादी विकास का तो परिणाम हैं ही स्वयं छोटी-मझोली किसानी की तबाही का भी परिणाम हैं। ज्यादातर व्यवसाय मरता क्या न करता के तहत चल रहे हैं। वे छिपी बेरोजगारी की अभिव्यक्ति हैं और स्व-शोषण का भयंकर नमूना। यदि उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए सरकारी योजनाएं बनायी जाती हैं तो स्वभावतः ही इन योजनाओं का फायदा धनी किसान और पूंजीवादी फार्मर उठायेंगे। बस इतना ही होगा कि वे स्व रोजगार के बदले इनके मजदूर बन जायेंगे।
इसके अलावा सहकारिता, स्वसहायता समूह, जैविक खेती तथा वर्षा जल के संरक्षण इत्यादि की जितनी बातें हैं वे गैर सरकारी संगठन मार्का बातें हैं जिनकी आजकल सभी सरकारी व गैर सरकारी दस्तावेजों में खूब चर्चा होती है, पर जिनका वास्तव में कोई मतलब नहीं होता। ये वे अच्छी बातें होती हैं जो अच्छा अहसास पैदा करने के लिए दस्तावेजों में दर्ज की जाती हैं।
कुल मिलाकर यह कि स्वामीनाथन आयोग की संस्तुतियों को या तो देश-दुनिया के वर्तमान हालात में लागू नहीं किया जा सकता या फिर उनका वह परिणाम कतई नहीं निकलेगा जिनकी रिपोर्ट तैयार करने वालों को या इसके मुरीदों की उम्मीद होगी। उदारीकरण-वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में केवल उसको कतर-ब्यौंत करने वाली किसी भी नीति या योजना का अपेक्षित परिणाम नहीं निकलेगा। अपेक्षित परिणाम पाने के लिए इन नीतियों को समूचे तौर पर ही बदलना पड़ेगा। यह वास्तव में एक क्रांति की मांग करता है। पर यह क्रांति तब इतने पर ही क्यों रुकेगी? पूंजीवादी व्यवस्था के संकट के इस काल में उदारीकरण-वैश्वीकरण के खिलाफ शुरू हुई कोई क्रांति स्वयं पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ क्यों नहीं जायेगी? बिना इसके क्या वह अपना अभीष्ट हासिल कर सकती है।
भारत में खेती का संकट प्रमुखतः छोटी-मझोली खेती का संकट है। इस संकट का समाधान संकटग्रस्त लुटेरू पूंजीवाद के दायरे में नहीं है। इसका समाधान इस पूंजीवाद के खात्मे और उसके बाद समाजवादी व्यवस्था की सामूहिक खेती में ही है। मजदूर वर्ग को अपने छोटे-मझोले किसान भाइयों को हर तरीके से यही समझाना होगा। कोई स्वामीनाथन, कोई नरेंद्र मोदी या कोई राहुल गांधी उनका तारनहार नहीं हो सकता।