मोदी सरकार के कार्यकाल का चौथा वर्ष आते-आते इसकी नीतियों और हरकतों से जनता का असन्तोष बहुत बड़े पैमाने पर फैल चुका है। मोदी और भाजपा के ‘’भक्तों” में से भी बहुतों का अलग-अलग कारणों से इससे मोहभंग तेज़ी से हो रहा है। हाल के उपचुनावों में भाजपा की करारी हार की तरह-तरह से व्याख्या हो रही है, लेकिन यह तो तय है कि लोगों का ग़ुस्सा और हताशा बढ़ता जा रहा है। देशभर में छात्रों-युवाओं, मज़दूरों-कर्मचारियों, किसानों, आदिवासियों आदि के आन्दोलनों का सिलसिला लगातार जारी है। बेरोज़गारी सारे रिकॉर्ड तोड़ रही है, महँगाई कम होने के बजाय और बढ़ती जा रही है, चन्द बड़े घरानों का ज़रख़रीद मीडिया द्वारा ढँकने-छुपाने की तमाम कोशिशों के बावजूद हर दिन नये-नये घपले-घोटाले सामने आने से भाजपा के फ़र्ज़ी सदाचार की धोती और भी नीचे खिसकती जा रही है।
ऐसे में घबराया हुआ संघी गिरोह अगले चुनाव से पहले जनता का ध्यान भटकाने और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। फ़ासिस्ट सत्ता में आने के बाद उसे अपने कब्ज़े में बनाये रखने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। नौकरशाही, सेना-पुलिस, न्यायपालिका, चुनाव आयोग आदि को वे अपना दास पहले ही बना चुके हैं। नफ़रत और झूठ के अन्धाधुन्ध प्रचार से देशभर में उन्होंने जुनूनी अन्धभक्तों की ऐसी भीड़ खड़ी कर ली है जिसे नकली भावनात्मक मुद्दों की रौ में बहाकर वे कभी उपद्रव खड़े कर सकते हैं। दूसरी ओर, इनसे मुक़ाबला करने वाली संगठित शक्तियों का घोर अभाव है। समाज के अलग-अलग तबक़े अपनी-अपनी मुश्किलों से तंग आकर सड़कों पर उतर रहे हैं, लेकिन उनके पास इस संगठित फ़ासिस्ट संगठन, जिसके हाथ में अब राज्यसत्ता भी है, से मुक़ाबला करने के लिए ज़रूरी एकता, संगठन और दिशा नहीं है।
ऐसे में, सत्ता में बैठे फ़ासिस्ट अपने असली काम, यानी देशी-विदेशी पूँजीपतियों की सेवा करने में लगातार लगे हुए हैं। पूँजीवाद फ़ासिस्टों का सहारा लेता ही इसीलिए है क्योंकि आर्थिकसंकट के कारण उसे अपने मुनाफ़े को बचाये रखने के लिए ऐसी सत्ता की ज़रूरत होती है जो सारे नियम-क़ानूनों को ताक पर रखकर नंगई से उन्हें लूट की खुली छूट दे, मज़दूरों को जमकर निचोड़े और जनता के असन्तोष को काबू में करने के लिए उसे झूठे धर्म-नस्ल आदि के नारों पर बाँट और बहका सके।
मोदी सरकार के करीब चार साल के कार्यकाल में एक ओर तो देशी-विदेशी बड़ी कम्पनियों को इस देश की दौलत को दोनों हाथों से लूटने की छूट दी गयी है, दूसरी ओर मज़दूरों-कर्मचारियों के बचे-खुचे अधिकारों को भी छीनकर उन्हें पूरी तरह से थैलीशाहों के ख़ूनी पंजों के हवाले कर देने के इंतज़ाम किये जा रहे हैं। ‘मज़दूर बिगुल’ के पिछले अंकों में हम आपको ऐसे तमाम मज़दूर-विरोधी क़दमों के बारे में बताते रहे हैं। अब सरकार उद्योगों में स्थायी रोज़गार को लगभग पूरी तरह ख़त्म करने की दिशा में क़दम बढ़ा चुकी है। (सरकारी नौकरियों में लाखों पदों को एक झटके में बेकार बताकर ख़त्म करने की क़वायद तो शुरू ही की जा चुकी है।)
केन्द्र सरकार ने पिछले दिनों एक मसविदा अधिसूचना प्रकाशित जिसके ज़रिए औद्योगिक विवाद क़ानून और मॉडल स्टैंडिंग ऑर्डर के नियमों में संशोधन करके उद्योगों में ‘फ़िक्स्ड टर्म नियुक्ति’ को मंज़ूरी मिल जायेगी। इसके साथ ही कुछ राज्यों द्वारा औद्योगिक विवाद क़ानून में ऐसे संशोधनों को भी स्वीकृति दे दी गयी जिनके बाद 300 तक मज़दूरों को रखने वाली कम्पनियाँ सरकारी मंज़ूरी के बिना ही और बिना नोटिस दिये मज़दूरों-कर्मचारियों कीं छँटनी या कम्पनी को बन्द कर सकती हैं। अब तक अधिकांश राज्यों में यह सीमा 100 मज़दूरों की है।
कॉरपोरेट सेक्टर ठेका मज़दूर प्रणाली को पूरी तरह क़ानूनी बनाने के लिए लम्बे समय से इस ‘’सुधार” के लिए दबाव बनाये हुए था। हालाँकि केन्द्र सरकार ने रेडीमेड गारमेंट और चमड़ा उद्योग में एक साल पहले ही इसे लागू करने की छूट दे दी थी, मगर नीति आयोग और पूँजीपतियों की अन्य संस्थाएँ सभी सेक्टरों में इसे लागू करने का दबाव डाल रही थीं। यह प्रावधान लागू हो जाने के बाद कम्पनियाँ अपनी ज़रूरत के मुताबिक कुछ हफ़्तों या कुछ महीनों के लिए मज़दूरों को काम पर रख सकती हैं और काम ख़त्म होते ही उन्हें बाहर निकाल सकती हैं। केन्द्र से नोटिफ़िकेशन जारी होने के बाद राज्य सरकारें भी इसके मुताबिक अपने श्रम क़ानूनों में आसानी से बदलाव कर सकती हैं।
‘फ़िक्स्ड टर्म नियुक्ति’ के तहत मज़दूरों को काग़ज़ पर उस कम्पनी में परमानेंट मज़दूरों के बराबर काम के घंटे, वेतन और भत्ते मिलेंगे लेकिन कॉन्ट्रैक्ट ख़त्म होने पर मज़दूर को दुबारा न लेने के लिए नियोक्ता पूरी तरह आज़ाद होगा, उसे कोई नोटिस भी नहीं देनी होगी। जहाँ तक परमानेंट मज़दूरों के बराबर सुविधाएँ मिलने की बात है, तो कारख़ानों की हालत से वाकिफ़ कोई भी व्यक्ति समझ सकता है कि ज़्यादातर मामलों में यह सुविधा काग़ज़ पर ही रहेगी। इसके अलावा, कम्पनियाँ अब किसी मज़दूर को ठेकेदार के बिना, सीधे ‘फ़िक्स्ड टर्म नियुक्ति’ पर रख सकती हैं।
केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने हाल ही में सभी सेक्टरों में ‘फ़िक्स्ड टर्म नियुक्ति’ लागू करने के पक्ष में तर्क दिया था कि ‘’बड़े पैमाने पर दुनियाभर से पूँजी-निवेश को आकर्षित करने” के लिए ऐसा करना ज़रूरी है। सिर्फ़ इसी बात से समझा जा सकता है कि इस तथाकथित ”श्रम सुधार” का असली मक़सद क्या है! दुनियाभर की कम्पनियाँ भारत में धरमखाता चलाने के लिए पूँजी-निवेश करने नहीं आयेंगी, वे आयेंगी यहाँ के सस्ते श्रम की मनचाही लूट से मुनाफ़ा बटोरने के लालच में।
मज़दूरों में असन्तोष, ट्रेड यूनियनों और कुछ विपक्षी दलों के विरोध के कारण केन्द्र सरकार जहाँ सीधे अपनी पहल पर श्रम क़ानूनों को नहीं बदल पा रही है, वहाँ चोर दरवाज़े से काम ले रही है। जहाँ भी सम्भव हो, अलग-अलग अधिसूचनाओं के ज़रिए नियमों में बदलाव किये जा रहे हैं जिनका लाभ उठाकर राज्य सरकारें अपने यहाँ क़ानूनों में बदलाव कर दे रही हैं। जहाँ भी केन्द्र को ख़ुद संशोधन करने में परेशानी हो रही है, वहाँ राज्यों को राज़ी किया जा रहा है कि मुख्यमंत्री स्तर पर हस्तक्षेप के ज़रिए श्रम क़ानून बदल दिये जायें। श्रम मंत्रालय के अधिकारियों का कहना है कि ऐसे बदलावों के प्रस्ताव आने पर केन्द्र सरकार उन्हें तुरन्त मंजूरी दे देती है।
राजस्थान, मध्यप्रदेश और असम जैसे राज्य पहले ही औद्योगिक विवाद क़ानून में संशोधन करके मज़दूरों की छँटनी, तालाबन्दी या कम्पनी पूरी तरह बन्द करने को आसान बना चुके हैं। महाराष्ट्र ऐसा ही क़ानून पारित करने की पूरी तैयारी कर चुका है जबकि गुजरात, हरियाणा और उत्तर प्रदेश इस महत्वपूर्ण क़ानून में बदलाव करने की तैयारी कर रहे हैं। देश के अधिकतर राज्यों में भाजपा की सरकारें होने से अब उनके लिए यह काम और आसान हो गया है।
यूनियनों द्वारा उठायी गयी आशंका पर श्रम मंत्रालय के एक अधिकारी ने पिछले दिनों सफ़ाई दी कि ‘’केन्द्र सरकार ऐसे उपाय करने की योजना बना रही है जिससे कम्पनियाँ प्रस्तावित ‘फ़िक्स्ड टर्म नियुक्ति’ के प्रावधान का लाभ उठाकर अपने स्थायी मज़दूरों को ठेका कर्मचारियों में न बदल पायें।” लेकिन जब सरकार पूरी तरह ‘’बाज़ार की सच्चाइयों से मेल खाने” के नाम पर रोज़गार-सुरक्षा को ख़त्म करने पर आमादा हो तो ऐसे आश्वासनों का क्या मतलब होगा, इसे समझा जा सकता है।
पिछली फरवरी में इस मसले पर बुलायी गयी बैठक में आने वाले सभी 12 राज्य सरकारों के प्रतिनिधियों ने ‘फ़िक्स्ड टर्म नियुक्ति’ का समर्थन किया। तीन केंद्रीय यूनियनों – आरएसएस से जुड़े भारतीय मज़दूर संघ (बीएमएस), नेशनल फ्रंट ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियन्स और ट्रेड यूनियन कोआर्डिनेशन सेंटर ने भी इस क़दम का समर्थन किया। मालिकों की एसोसिएशनों की ओर से तो समर्थन होना ही था। अन्य यूनियनों ने यह कहकर मीटिंग से वॉक आउट किया कि केन्द्रीय बजट में इस क़दम की घोषणा करने से पहले उनसे राय-मशविरा नहीं किया गया। इनमें वामपंथी यूनियनों सीटू और एटक भी शामिल थीं। यानी उनका कुल विरोध इस बात से था कि ऐसे घनघोर मज़दूर-विरोधी क़दम की घोषणा करने से पहले उनसे पूछा क्यों नहीं गया! ये दल्ले पिछले तीन दशक से यही करते रहे हैं। मज़दूरों को बहलाने-फुसलाने के लिए विरोध का झूठा नाटक, और फिर हर मज़दूर-विरोधी क़दम को आराम से लागू होने देना। एक-एक करके मज़दूरों के सारे अधिकार छीन लिये गये और ये बस रस्मी विरोध का झुनझुना ही बजाते रह गये।
जैसाकि देखने में आया है, असन्तोष बढ़ने के डर से सरकारें ऐसे क़ानूनों को एक झटके में और तेज़ी से लागू नहीं करती हैं। पहले इसके पक्ष में माहौल बनाया जाता है, फिर वामपंथी यूनियनें या कुछ विपक्षी दल विरोध का शोर उठाते हैं तो उसे कुछ समय के लिए टाल दिया जाता है, या थोड़ा हल्का कर दिया जाता है। या फिर ऐसे क़दमों को टुकड़े-टुकड़े में, थोड़ा-थोड़ा करके लागू किया जाता है। ऐसे में छिटपुट कुछ विरोध होता है तो उसे आसानी से दबा दिया जाता है और कुछ वर्षों में वह मज़दूर-विरोधी क़दम एक सामान्य बात के तौर पर स्वीकृत हो जाता है। ठेका प्रळाा को बड़े पैमाने पर ऐसे ही लागू कराया गया है। इस रूप में भी ये नकली वामपंथी मज़दूरों के दुश्मन और इस व्यवस्था के रक्षक साबित होते हैं।
कहने की ज़रूरत नहीं कि पूँजीपतियों की तमाम संस्थाएँ और भाड़े के बुर्जुआ अर्थशास्त्री उछल-उछलकर सरकार के इन प्रस्तावित बदलावों का स्वागत कर रहे हैं और कह रहे हैं कि अर्थव्यवस्था में जोश भरने और रोज़गार पैदा करने का यही रास्ता है। कहा जा रहा है कि आज़ादी के तुरन्त बाद बनाये गये श्रम क़ानून विकास के रास्ते में बाधा हैं इसलिए इन्हें कचरे की पेटी में फेंक देना चाहिए और श्रम बाज़ारों को ‘’मुक्त” कर देना चाहिए। विश्व बैंक ने भी 2014 की एक रिपोर्ट में कह दिया था कि भारत में दुनिया के सबसे कठोर श्रम क़ानून हैं जिनके कारण यहाँ पर उद्योग व्यापार की तरक्की नहीं हो पा रही है। मोदी सरकार लगातार ‘’ईज़ ऑफ़ डूइंग बिज़नेस” के नाम पर उन क़ानूनों में बदलाव लाने पर ज़ोर दे रही है जिनके कारण मज़दूरों की छुट्टी करना कठिन होता है।
बुर्जुआ और संसदमार्गी वामपंथी दलों से जुड़ी यूनियनें मजदूरों के अतिसीमित आर्थिक हितों की हिफ़ाज़त के लिए भी सड़क पर उतरने की हिम्मत और ताक़त दुअन्नी-चवन्नी की सौदेबाजी करते-करते खो चुकी है। वैसे भी देश की कुल मज़दूर आबादी में 90 फीसदी से अधिक जो असंगठित मज़दूर हैं, उनमें इनकी मौजूदगी बस दिखावे भर की ही है। अब सफेद कॉलर वाले मजदूरों, कुलीन मजदूरों और सर्विस सेक्टर के मध्यवर्गीय कर्मचारियों के बीच ही इन यूनियनों का वास्तविक आधार बचा हुआ है और सच्चाई यह है कि नवउदारवाद की मार जब समाज के इस संस्तर पर भी पड़ रही है तो ये यूनियनें इनकी माँगों को लेकर भी प्रभावी विरोध दर्ज करा पाने में अक्षम होती जा रही है। बहरहाल, रास्ता अब एक ही बचा है। गाँवों और शहरों की व्यापक मेहनतकश आबादी को सघन राजनीतिक कार्रवाइयों के जरिए, जीने के अधिकार सहित सभी जनवादी अधिकारों के लिए संघर्ष करने के उद्देश्य से, उनके विशिष्ट पेशों की चौहद्दियों का अतिक्रमण करके, इलाकाई पैमाने पर संगठित करना होगा। दूसरे, अलग-अलग सेक्टरों की ऐसी पेशागत यूनियनें संगठित करनी होगी, जिसके अन्तर्गत ठेका मज़दूर और सभी श्रेणी के अनियमित मज़दूर मुख्य ताकत के तौर पर शामिल हों। पुराने ट्रेड यूनियन आन्दोलन के क्रान्तिकारी नवोन्मेष की सम्भावनाएँ अब अत्यधिक क्षीण हो चुकी हैं।
नवउदारवाद के दौर ने स्वयं ऐसी वस्तुगत स्थितियाँ पैदा कर दी हैं कि मज़दूर वर्ग यदि अपने राजनीतिक अधिकारों के लिए नहीं लड़ेगा तो सीमित आर्थिक माँगों को भी लेकर नहीं लड़ पायेगा। मज़दूर क्रान्तियों की पराजय के बाद मज़दूर आबादी के अराजनीतिकीकरण की जो प्रवृति हावी हुई है, उसका प्रतिरोध करते हुए ऐसे हालात बनाने के लिए अब माकूल और मुफीद माहौल तैयार हुआ है कि मज़दूर वर्ग एक बार फिर नये सिरे से क्रान्तिकारी राजनीतिक चेतना के नये युग में प्रवेश करे। जाहिर है, यह अपने आप नहीं होगा। इसके लिए सर्वहारा क्रान्ति के विज्ञान और आज के नये हालात (यानी नवउदारवाद के दौर में पूँजीवाद की नयी कार्यप्रणाली) का गहन अध्ययन और जाँच-पड़ताल करके सर्वहारा क्रान्तिकारियों के नये दस्तों को मैदान में उतरना होगा। आगे का रास्ता निश्चय ही लम्बा और कठिन है, लेकिन विश्व पूँजीवाद का मौजूदा असमाधेय ढाँचागत संकट बता रहा है कि पूँजी और श्रम के बीच संघर्ष का अगला चक्र श्रम की शक्तियों की निर्णायक विजय की परिणति तक पहुँचेगा। ऐसी स्थिति में लम्बा और कठिन रास्ता होना लाजिमी है, लेकिन हजार मील लम्बे सफर की शुरुआत भी तो एक छोटे से कदम से ही होती है।
पूँजीपतियों की लगातार कम होती मुनाफे़ की दर और ऊपर से आर्थिक संकट तथा मज़दूर वर्ग में बढ़ रहे बग़ावती सुर से निपटने के लिए पूँजीपतियों के पास आखि़री हथियार फासीवाद होता है। भारत के पूँजीपति वर्ग ने भी नरेन्द्र मोदी को सत्ता में पहुँचाकर अपने इसी हथियार को आज़माया है। फासीवादी सत्ता में आते तो मोटे तौर पर मध्यवर्ग (तथा कुछ हद तक मज़दूर वर्ग भी) के वोट के बूते पर हैं, लेकिन सत्ता में आते ही वह अपने मालिक बड़े पूँजीपतियों की सेवा में सरेआम जुट जाते हैं।
बात श्रम क़ानूनों को कमजोर करने तक ही नहीं रुकेगी, क्योंकि फासीवाद बड़ी पूँजी के रास्ते से हर तरह की रुकावट दूर करने पर आमादा होता है और यह सब वह ‘’राष्ट्रीय हितों” के नाम पर करता है। फासीवादी राजनीति पूँजीपतियों के लिए काम करने और उनका मुनाफ़ा बढ़ाने को इस तरह पेश करती है कि यही देश के लिए काम करना, देश को ‘’महान” बनाने के लिए काम करना है। इसके लिए सभी को बिना कोई सवाल-जवाब किये, बिना कोई हक़-अधिकार माँगे काम करना पड़ेगा। लोग अपनी तबाही-बर्बादी के बारे में सोचें नहीं, इसके विरोध में एकजुट होकर लड़ें नहीं, इसी मकसद से तरह-तरह के भावनात्मक मुद्दे भड़काये जाते हैं और धार्मिक बँटवारे किये जाते हैं। देश के मेहनतकशों को अपने अधिकारों पर इस खुली डकैती के ख़िलाफ़ लड़ना है या आपस में एक-दूसरे का सिर फुटौवल करना है, यह फ़ैसला उन्हें अब करना ही होगा।