डॉ. भीमराव आंबेडकर की भारतीय समाज में पहचान मुख्यत: एक समाज सुधारक, सामाजिक न्याय के प्रणेता, रक्षक और संविधानविज्ञ के रूप में प्रतिष्ठित है। 2014 से पहले डॉ. आंबेडकर की पहचान भारतीय समाज में कुछ वर्गों द्वारा मुख्य रूप से दलितों के नेता और मसीहा के रूप में ही प्रतिष्ठित की जा रही थी लेकिन 2014 के उपरांत भारतीय राजनीति ने करवट ली और वोटों की गणित के कारण आंबेडकर की भारतीय राजनीति और समाज मे प्रासंगिकता एकाएक पहले से ज्यादा बढ़ गयी और देश के सारे राजनीतिक दलों मे आंबेडकर को अपनाने की जैसे होड़ सी मच गयी। आंबेडकर को अपनाने के साथ ही देश के कुछ राजनीतिक दलों के द्वारा सभी महापुरुषों को एक दूसरे के बराबर और विपक्ष में खड़ा करने की कोशिश भी की जाने लगी जैसे गांधी को आंबेडकर के सामने,नेहरू को सरदार पटेल के सामने। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि देश के विभिन्न राजनीतिक दलों के राजनेताओं के मध्य आंबेडकर को श्रद्धांजलि देने और उनके जन्मदिन पर सभाएं करने की जो होड़ मची है वह आंबेडकर के सिध्दांतों के सम्मान मे नहीं बल्कि एक विशेष समुदाय के वोट को झाँसा देकर अपनाने के लिए मची है। इन्हीं राजनीतिक दलों की श्रेणी में भारतीय जनता पार्टी भी शामिल है, जो डॉ. आंबेडकर को अपनाने के लिए सबसे ज्यादा लालायित है और आजकल इसकी सारी राजनीति आंबेडकर के इर्दगिर्द ही चल रही है। इसका प्रमुख कारण है दलित वोट।
अब हम यदि वर्तमान भारतीय राजनीति को देखें तो आंबेडकर की 125वीं जयंती (14 अप्रैल, 2016) पर विभिन्न कार्यक्रमों को कराने की जैसे होड़ मच गयी जहां पर देश के दलित संगठन बर्षों से डॉ. आंबेडकर की जयंती मनाते आ रहे हैं, वहीं कुछ अन्य संगठनों ने उनके सम्मान में प्रत्येक बर्ष उनकी जयंती मनाने की घोषणा कर दी है। कुछ संगठनों द्वारा आंबेडकर की विरासत पर कब्जा करने का यह एक प्रयास है जिसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी प्रमुख हैं ।
अमूल्य गोपालकृष्णन लिखते हैं कि “आंबेडकर पर कब्जा करने का सबसे दुस्साहसी प्रयास भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का है ।इन दोनों का वैश्विक नजरिया ठीक वही है जिसे नष्ट करना डॉ. आंबेडकर का मिशन और सपना था।”
यदि वर्तमान भारतीय राजनीति को देखा जाए तो आरएसएस और भारतीय जनता पार्टी का उद्देश्य वही है जिसे आंबेडकर खत्म करना चाहते थे। अभी कुछ दिन पहले एक साक्षात्कार के दौरान आरएसएस के प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने कहा कि उनके संगठन की श्रद्धा डॉ. आंबेडकर के प्रति नई नहीं है। उन्होंने कहा कि “आंबेडकर कभी ब्राह्मण–विरोधी नहीं थे, वे हर प्रकार के जातिवाद और जातिगत उत्पीड़न व जातिगत भेदभाव के खिलाफ थे और मेरा संगठन भी इन बुराइयों के खिलाफ है।” इसी दरमियान हम देखते हैं कि आंबेडकर की 125वीं जयंती पर ही महू में आयोजित एक कार्यक्रम मे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि “डॉ. आंबेडकर ने समाज में अन्याय के खिलाफ संघर्ष किया और उनका संघर्ष समानता और गरिमा के लिए था।”
प्रधानमंत्री अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने के लिए इसी दौरान एक रैली में कहते हैं कि “यदि मारना हो तो मुझे मारो, मेरे दलित भाइयों को नहीं ।” यह वही दौर था जब गुजरात के ऊना मे दलितों के साथ अमानवीय व्यवहार किया गया, भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर (रावण) को झूठे आरोपों में फंसाकर गिरफ्तार किया गया और रोहित बेमुला की संस्थानिक हत्या की गयी। प्रधानमंत्री जिन दलितों की रक्षा की बात कर रहे हैं और कह रहे हैं कि हम सामाजिक अन्याय कम करके डॉ.आंबेडकर के सपनों को पूरा कर रहे हैं, उसकी हकीकत NCRB के आंकड़े बताते हैं।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के ताजा आंकड़े बताते हैं कि पिछले चार बर्षों में दलित विरोधी हिंसा के मामलों में बहुत तेजी से वृद्धि हुई है। जहां 2006 में दलितों के खिलाफ अपराधों के कुल 27,070 मामले सामने आए थे, जो 2011 में बढ़कर 33,719 हो गए। साल 2014 में अनुसूचित जाति के साथ अपराधों के 40,401 मामले, 2015 में 38,670 मामले व 2016 में 40,801 मामले दर्ज किए गए। आकड़ों को समग्र रूप में देखें तो भारत में इस दौरान हर पंद्रह मिनट में किसी न किसी दलित के साथ दुर्घटना घटी और भारतीय जनता पार्टी शासित राज्यों या उन राज्यों मे जहां भारतीय जनता पार्टी सरकार मे शामिल है वहां की स्थिति और भी ज्यादा खराब है।
दलित समाज में अपनी व्यापक स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए आरएसएस प्रमुख मोहन भगवत ने 15 फरवरी 2015 को एक और सफ़ेद झूठ हवा में उछाला और कहा कि “डॉ. आंबेडकर, संघ की विचारधारा में यकीन करते थे।” वास्तविकता यह है कि आरएसएस और डॉ. आंबेडकर की विचारधारा में जमीन–आसमान का अंतर है। जहां डॉ. आंबेडकर राष्ट्रवाद के बजाय व्यक्ति के कल्याण, धर्मनिरपेक्षता ,सामाजिक न्याय और सामाजिक समरसता के सिद्धांतों मे यकीन रखते थे वहीं आरएसएस की विचारधारा हिन्दू धर्म की ब्राह्मणवादी व्याख्या, एक तरह की व्यक्ति पूजा, हिन्दू राष्ट्रवाद पर टिकी है। डॉ. आंबेडकर ने हिन्दू धर्म की कुरीतियों और परम्पराओं से तंग आकर 1956 में अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौध्द धर्म को अपना लिया। आंबेडकर ने व्यक्ति पूजा या राजनीति में भक्ति को लेकर एक बार अपने भाषण में यह कहा था कि “महान लोग, जिन्होंने अपना पूरा जीवन देश को समर्पित कर दिया उनके प्रति कृतज्ञ रहने में कोई बुराई नहीं है लेकिन कृतज्ञता की भी एक सीमा है… दूसरे देशों की तुलना में भारतीयों को इस बारे में ज्यादा सतर्क रहने की जरूरत है। भारत की राजनीति में भक्ति या आत्मसमर्पण या नायक पूजा दूसरे देशों की राजनीति की तुलना में बहुत बड़े स्तर पर अपनी भूमिका निभाती है। धर्म में भक्ति आत्मा की मुक्ति का मार्ग हो सकती है लेकिन राजनीति में, भक्ति या नायक पूजा पतन का निश्चित रास्ता है जो आखिरकार तानाशाही पर खत्म होता है।”
जिस राष्ट्रवाद पर बहस जवाहर लाल नेहरू विश्वविध्यालय की एक घटना से शुरू हुयी और संघ परिवार का जो राष्ट्रवाद सामने निकल कर आयाख्, शायद वे इस राष्ट्रवाद से थोड़ा भी इत्तेफाक नहीं रखते। “बाबासाहब ने न केवल जिन्ना के मुस्लिम राष्ट्रवाद की कड़ी निंदा की वरन उन्होंने यह भी लिखा कि पूरा विश्व राष्ट्रवाद की बुराइयों से परेशान है और किसी अंतर्राष्ट्रीय संगठन की शरण में जाना चाहता है (डॉ. आंबेडकर, 1990, पृष्ठ 352-353)। बाबासाहब के अनुसार, भारतीय केवल एक लोग हैं, राष्ट्र नहीं और वे यह भी मानते थे कि अगर भारतीय राष्ट्र नहीं हैं और राष्ट्र नहीं बनेंगे तो इसमें शर्म की कोई बात नहीं है (डॉ. आंबेडकर, 1990, पृष्ठ 353)।”
सच कहिए तो संघ परिवार द्वारा डॉ. आंबेडकर से अपनी विचारधारा को जोड़ने का प्रयास, लाखों लोगों की आंख में धूल झोंकने का एक प्रयास है। दरअसल संघ इस प्रयास के माध्यम से उन लाखों लोगों का राजनीतिक समर्थन हासिल करना चाहता है जो डॉ. आंबेडकर के वैचारिक और सामाजिक मूल्यों के प्रति प्रतिबध्द हैं।