रोड किनारे खड़ा नौजवान अपना हाथ मेरठ की वेस्टर्न कचहरी रोड पर स्थित त्यागी हॉस्टल की तरफ फैलाकर ऐसे भूमिका बांध रहा था जैसे इसके गौरवमयी इतिहास पर पुस्तक लिखने के बाद किसी पत्रिका को इंटरव्यू देने आया हो। उसके ऊपर मारपीट, डकैती और डराने–धमकाने के कई आपराधिक मामले दर्ज हैं, लेकिन उसे हार्डकोर अपराधी नहीं कहा जा सकता। वह छह फुटा लम्बा–चौड़ा जवान है जो मेरठ के आसपास फिरौती मांगने वाले एक गिरोह का हिस्सा है। वह इतना सक्रिय है कि एक पुलिसवाले ने खुद उसके बारे में यह दावा किया कि उसके पास फिरौती या पैसों के लिए अपहरण कारोबार (यहां इस जुर्म को अपराधी कारोबार कहते हैं) की एक–एक खबर रहती है।
पश्चिमी यूपी की समानांतर सरकार
जैसे ही उसे यह समझ आया कि रिपोर्टर क्या जानना चाह रहा है, उसने “मेरा नाम मत छापना’’, कहते हुए बताया, “त्यागी हॉस्टल अब खाली पड़ा है। सब गुंडे टाइप लोग यहां से कब के ईद का चांद हो चुके। इस इलाके में चंदा या समझौता करवाने टाइप फिरौती जैसा सारा काम अब राहुल कुटबी के हाथों में है। राहुल कुटबी भाजपा नेता संजीव बालियान का भाई है और इस इलाके में संगठित होते जा रहे जुर्म का असली खिलाड़ी है। आसपास के जो छोटे–मोटे लकड़बग्घे कुटबी की चेन में नहीं जुड़े उनके लिए दो ही ऑप्शन खुले थे– जेल या एनकाउंटर।
मुज़फ्फरनगर, शामली, बागपत और मेरठ के हर गांव में इसका एक आदमी है, जिसे थाने से जोड़ा गया है। उसका काम लड़ाई–भिड़ाई या छोटे–मोटे अपराधों के समझौतों में पुलिस के साथ चिपके रहना और पीड़ित और आरोपी पक्ष से समझौते या मामला सुलटवाने के नाम पर पैसे लेना है। थाने में उनके बिना पत्ता भी नहीं हिलता।”
नौजवान को कुटबी के सिर्फ संगठित अपराध के बारे में पता है। लेकिन मेरठ यूनिवर्सिटी के ठीक सामने एक चाय के अड्डे पर जमे शहर के कई पत्रकार इस बात पर एकमत दिखे कि राहुल कुटबी आरएसएस के कहे अनुसार ही काम रहा है और आरएसएस खुद चेहरा न बनकर सारे काम उससे ही करवा रही है। चाय की चुस्की सफुड़ते हुए एक पत्रकार ताना मारने वाली शैली में बुदबुदाया, “यूनिवर्सिटी में असिस्टेन्ट प्रोफेसर तक चुनने की जिम्मेदारी अब इनके कंधों पर आन पड़ी है। यूनिवर्सिटी ने चार सीटों पर भर्तियां निकाली और भर्ती कर लिए पांच। आरएसएस ने पांच जनों की लिस्ट बनाकर कुटबी के हाथों वीसी तक पहुंचाई। अब ऊपर से आदेश पर न वीसी का कोई जोर और न कुटबी का। पांचों भरने पड़े। थोड़ा बहुत हो–हल्ला हुआ, लेकिन बाद में सब निबट गया।”
वीसी का नाम पूछने पर पत्रकार महोदय चाय का खाली गिलास घरती में पटक लम्बा सा हाथ निकालकर बोले, “अरे तुम्हें इस वीसी का नाम नहीं मालूम। बड़ा चर्चित वीसी रहा है ये– एन.के. तनेजा। यह वही वीसी हैं जिनके ऊपर चने के खेत में बीएड कॉलेज प्रकरण में जांच भी चल रही है’’। पत्रकार इस बात की ओर भी इशारा करता है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश को उच्च शिक्षा से दूर रखा गया है और बौद्धिक रूप से तोड़ा गया है। यहां नौ जिलों पर सिर्फ एक ही यूनिवर्सिटी है और वह है चौधरी चरण सिंह यूनिवर्सिटी, मेरठ।
चौधरी चरण सिंह युनिवर्सिटी कभी कोई बड़े प्रगतिशील छात्र आंदोलन का गवाह नहीं रही। लोकदल, कांग्रेस और आरएसएस के छात्र विंग टुकड़ों में हल्का–फुल्का रौला काटते रहे। अब कैंपस में सिर्फ आरएसएस का विंग एबीवीपी ही मलाई काट रहा है। लोकदल वाले पिछले एक साल से लापता हैं। बड़ी मशक्कत के बाद हमारी मुलाकात लोकदल के छात्र नेता राजीव चौहान से हुई। स्प्लेंडर मोटरसाइकिल को स्टैंड पर लगा उस पर बैठे हुए राजीव से छात्र आंदोलनों के बारे में पूछते ही उसका फूल गया। दांत पीसकर तेज़ हंसी रोकने के एक छोटे से प्रयास के बाद उसने कहा, “पिछले साल शाहपुर इंटर कॉलेज में छात्रों को प्रधानाचार्य ने भारतीय संस्कृति और अनुशासन का हवाला देकर सर मुंडवाने के लिए कहा। जब छात्रों ने उनकी बात नहीं मानी तो प्रधानाचार्य ने इस एरिया के कर्ता–धर्ता राहुल कुटबी को वहां बुला लिया। फिर जो हुआ उसका सभी को पता है। पहले छात्रों को इकट्ठा किया गया। फिर उनके कपड़े उतरवाए गए। एकाध उल्टी सीधी पोजीशन बनवाई गईं और फिर उन्हें गंजा कर दिया गया। बेचारे कई दिन थाने–चौकी भटके। वहां भी पुलिस ने उन्हें पेल दिया। गठबंधन ने इस बार टिकट गलत आदमी को दे दिया वरना यह सीट भाजपा हारने वाली थी लेकिन अब नहीं हार रही। भाजपा ही जीतेगी।”
राजीव ने जो बताया वह वाकई बड़ा अजीब था। ऐसा लग रहा था जैसे मेरठ, मुजफ्फरनगर, शामली, बागपत और आसपास के इलाके में राहुल कुटबी नाम का यह आदमी एक समानांतर सरकार चला रहा है। ऐसे में सवाल उठना जायज है कि राहुल कुटबी आखिर है कौन?
राहुल कुटबी पर कई हत्याओं, लूट, डकैती, फिरौती के मामले दर्ज होने के कारण पुलिस ने एक लाख का ईनाम घोषित किया थाख् लेकिन 2014 में सत्ता परिवर्तन हुआ। मोदी जीतकर आए और मुजफ्फरनगर से जीतकर आए कुटबी के भाई संजीव बालियान। भाई जीता तो कुटबी के दिन पलटे। सर से ईनामी बदमाश होने का टैग गायब हुआ और 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों में सक्रिय भूमिका के चलते आरएसएस का सर पर हाथ था ही।
सत्ता ने ऐसा खेल बिछाया कि कभी विरोध में पंचायतें करने वाले पंचायती टाइप पगड़ीधारी चौधरी अब राहुल कुटबी के समर्थन में पंचायतें करने लगे और उसे समाज का हीरो घोषित कर दिया। ये पंचायती टाइप लोग सत्ता के इर्द–गिर्द रहते हैं ताकि सरकार से एकाध पर्सनल काम निकलवा सकें या अपने जवान बेटों–बेटियों को नौकरियां दिलवा सकें। और सत्ता इन्हें इसलिए पालती है ताकि सत्ता के प्रोपेगंडा के हिसाब से इनसे पंचायतों का आयोजन करवाया जा सके। यहां भी यही हुआ। अब पंचायतियों का नया बॉस राहुल कुटबी था।
खेत चर रहे ‘’योगी–मोदी’’
सरधना विधानसभा का खुशावली गांव। राजपूत बहुल गांव के बीचों–बीच राणा चौक। आस–पड़ोस में रहने वाले कई आदमी वहां इकट्ठा हुए थे जिनमें ज्यादातर राजपूत और कुछ ब्राह्मण जाति के लोग थे। लोकसभा चुनाव का जिक्र करते ही वहां खड़े भाजपा के एक कार्यकर्ता ने तपाक से जवाब दिया, “पूरा देश ही भाजपा है तो यहां भी सब भाजपा है जी।”उनके ऐसा बोलते ही वहां खड़े बीड़ी पी रहे विनोद ने एक लम्बा और आखरी कश खींचकर जवाब दिया, “रुक भाई ओ बीजेपी मास्टर। यहां अबकी बार सब एक तरफ नहीं हैं। लोगों को बहकाना हमारी पीठ पीछे। आगे तो हम ऐसा होने नहीं देंगे।”विनोद के ऐसा बोलने के बाद वहां खड़े कई लोगों ने अपने सर हिलाए और कुछ बुदबुदाए। विनोद ने बड़ी तेज़ी से मेरी तरफ देखा और खूब ऊंची आवाज़ में कहा, “दलालों का राज है जी। अबकी बार तो नहीं देने के लोग वोट इन्हें। थाने में दलाल, तहसील में दलाल, हमारे आगे दलाल, पीछे दलाल। सब दलालों से भरा हुआ है। छोटी सी बात पर भी अगर आप गलती से थाने चले गए तो दलाल आपकी जेब पर डाका डाले बिना छोड़ता नहीं। आप हमारे यहां बिना दलालों के ढंग से पाद भी नहीं सकते।”आखिरी बात पर सामूहिक गंभीरता ठहाके में बदल गयी। सारे हंस रहे थे तो भाजपा कार्यकर्ता दांत पीस रहा था। अपनी किरकिरी होते देख वह बड़बड़ाते हुए वहां से निकल लिया।
बातचीत आगे बढ़ाने के लिए मैंने दलालों की किस्मों के बारे में सवाल उछाल दिया। सवाल को दोबारा लपक कर विनोद ने जवाब दिया, “देख भाई जो ये योगी–मोदी (आवारा पशुओं को यहां लोग योगी–मोदी कहते हैं) झुंडों में घूम रहे हैं ना, इन्होंने हमारा बड़ा जीना हराम कर रखा है। अब तो इन्हें छोड़कर आने के लिए पहले बजरंग दल वालों को रिश्वत दो और फिर पुलिस वालों को। गरीब जिमिदार (छोटा किसान) को तो दोहरी मार पड़ी के नहीं पड़ी? खेती के हाल तो आप मीडिया वालों से छिपे नहीं।”विनोद का यह सवाल रूपी जवाब सुन सभी ने उसके पक्ष में सर हिलाया।
आवारा पशुओं से परेशान पश्चिमी यूपी के किसान कई बार मोर्चा खोल चुके हैं लेकिन अभी उनके तथाकथित “योगी–मोदी”उनके खेतों में फसलें चरते घूमते हैं।
बदले–बदले अजीत सिंह
बागपत का रमाला गांव। गांव की फिरनी पर एक बड़े से गितवाड़ (प्लॉट) में अजीत सिंह की एक बैठक। चार ट्रॉलियों को जोड़कर एक स्टेज बना दिया है। आयोजकों में चंदे की फुसफुसाहट चल रही है। एक नौजवान से दिखने वाले धौलपोस (सफ़ेद कुर्ते पाजामे पहने) ने चिंता जताते हुए कहा, “बस एक लाख। एरिया के इतने बड़े गांव से सिर्फ इतना ही इकट्ठा हुआ।‘’ उसकी चिंता को सब्र का घोल पिलाने के लिए दूसरे धौलपोस ने जवाब दिया, “गांव के एक भी ठेकेदार या मोटी शामी (अमीर आदमी) ने एक रुपया नहीं दिया। सब छोटे–छोटे किसानों, दलितों और मुल्लों ने दिया है। 10-10, 50-50 रुपये जिस गरीब किसान–मज़दूर से जो बन पड़ा वो मिला है। मोटे लोग सब बीजेपी के रथ में सवार हैं।”
बातचीत के बाद ही दोनों एक बार फिर से तैयारियों में जुट गए। किसान, मुसलमान और दलितों की खूब भीड़ इक्कठा हुई। अजीत सिंह आए और अल्पसंख्यक, किसान, दलित की बात कर मोदी पर चार–पांच चुटकुले छोड़कर चलते बने। चंदे की राशि उन्हें सौंप दी गयी। लोग भी अजीत सिंह की हां में हां मिलाकर चलते बने। कुल मिलाकर इस किस्से को बताने का सार यह था कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लगभग सारे भट्ठा मालिक, प्रॉपर्टी डीलर या मोटे कारोबारी भाजपा की गोद में जा बैठे हैं। जो नहीं बैठना चाह रहे थे उन्हें राहुल कुटबी ने भाजपा की गोद में बैठा दिया है।
गठबंधन का मंच
इसी गांव के सहेंद्र सिंह रमाला ने अजीत सिंह की पार्टी से छपरौली से 2017 में चुनाव लड़ा। चरण सिंह की सीट होने के नाते उन्हें लोगों ने जिता दिया। लोकदल ने इतना खराब प्रदर्शन किया कि सिर्फ सहेंद्र ही उनके एकमात्र विधायक जीतकर आए। चंडीगढ़ तक कारोबार फैले होने के कारण सहेंद्र को गांव में मोटी मुर्गी कहा जाता है। रमाला के किसान यूनियन के कार्यकर्ता धर्मवीर चौहान बताते हैं, “पिछले साल राज्यसभा चुनाव से कुछ दिन पहले ही एकाएक सहेंद्र को चंडीगढ़ भागना पड़ा। खबर मिली थी कि उसके कारोबार पर कई छापे पड़े हैं। दो–तीन दिन बाद आए तो वह गांव में भाजपा सरकार की उपलब्धियां गिनवाते घूम रहे थे और राज्यसभा की वोटिंग के दौरान भाजपा को वोट डालकर भाजपा का मफलर गले में डाल लिया।” धर्मवीर यह सब हमें बड़ी निराशा के साथ बता रहे थे। उनका मानना था कि सहेंद्र ने छपरौली जैसी पवित्र सीट और चरण सिंह के लोगों से गद्दारी की है।
रमाला गांव के अड्डे पर एक ट्रैक्टर दिखा, जिस पर कुछ मुसलमान किसान सवार थे। ट्रैक्टर पर लोकदल का झंडा था और वे हाथ जोड़कर सबसे लोकदल के लिए वोट देने की अपील करते हुए आगे निकल गए। पास में ही खड़े एक बुजुर्ग किसान की तरफ जब मैंने उनके बारे में जानने की निगाहों से देखा तो वह बोल उठे, “असारा गांव के मुल्ले जाट थे ये। सबसे ज्यादा भाजपा को हराने के लिए ये ही इस इलेक्शन में घूम रहे हैं। बेचारे घूमें भी क्यों न। दोहरी मार खाई है, किसानी के बट (नाम) के भी पिटे और धर्म के बट के भी।”
बागपत से इस बार भाजपा के सत्यपाल सिंह के खिलाफ जयंत चौधरी चुनाव लड़ रहे हैं। पिछली बार सत्यपाल सिंह ने ही अजीत सिंह को चुनाव में हराया था। इस बार बाप का बदला लेने के लिए बेटा मैदान में है। लोकदल की वापसी जयंत के कंधों पर टिकी हुई है। सूबे के ही एक पत्रकार ने बताया था कि अजीत सिंह की जड़ों को इस इलाके से उखड़वाने में अनुराधा चौधरी का बड़ा हाथ है। वह चौधरी अजीत सिंह की सबसे करीबी मानी जाती थीं और उन्होंने ही अजीत सिंह और भाजपा के हाथ मिलवाए।
सेक्युलर बनकर वोट मांग रहे अजीत सिंह से अनुराधा चौधरी और भाजपा ने वही सब काम करवाए थे जो आज भाजपा संजीव बालियान से करवा रही है। गाय के नाम पर दंगा, अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत का प्रचार टाइप काम अजीत सिंह ने भी किया है जिसकी वजह से उनकी जड़ें इस इलाके से उखड़ी थीं। इन्हीं सब कारनामों से बाप–बेटे के बीच टकराव बढ़ा। बेटा संघ के साथ जाने की बजाय सेक्युलर और नए तरीके से राजनीति करना चाहता था। बाप–बेटे की टकराहट में बेटे की जीत हुई और अनुराधा पार्टी से बाहर हुईं।
यह किस्सा इसलिए कि अजीत सिंह के मुंह से किसानों, मुसलमानों और दलितों के पक्ष में आवाज़ें बेटे और एक बदलाव के कारण निकलनी शुरू हुई हैं।
मतदान से पहले एक आकलन
इस रिपोर्टर ने हफ्ते भर में पश्चिमी यूपी की उन आधा दर्जन सीटों का ज़मीनी जायज़ा लिया जहां 11 अप्रैल को पहले चरण में मतदान होने हैं। 9 अप्रैल की शाम प्रचार खत्म होगा, जिसमें केवल अड़तालीस घंटे बाकी हैं। अब तक की स्थिति यह है कि बागपत और मुज़्ज़फरनगर की सीट पर बीजेपी कमजोर चल रही है। बागपत और मुजफ्फरनगर की सीट पर जाट–मुसलमान–दलित समीकरण गठबंधन के पक्ष में है तो भाजपा की गुल्लक में शहरी सवर्ण हिंदुओं और अतिपिछड़ी जातियों के वोट जमा हैं।
अगर ये दोनों सीटें बीजेपी हार गई, तो उसकी हार का कारण देहात में किसानों के बीच उसका भारी विरोध होना है और लोकदल का चरण सिंह वाले रंग में लौटना है। दूसरा कारण राहुल कुटबी है जिसके संगठित अपराध से सभी परेशान हैं। लगभग हर तीसरे चौथे इंसान की जुबान पर कुटबी का नाम है। ज्यादातर के लिए कुटबी गुंडा है तो कुछेक के लिए मसीहा। शहर की बात करें तो भाजपा मुजफ्फरनगर शहर में मजबूत है मगर बागपत शहर में कमज़ोर।
मेरठ सीट गठबंधन जीत सकता था बशर्ते उनका उम्मीदवार कोई और होता। गठबंधन के उम्मीदवार हाजी याकूब कुरेशी की छवि कट्टर मुसलमान की बनी हुई है। उन्होंने डेनिश कार्टूनिस्ट को मारने वाले को 51 करोड़ का इनाम देने का फतवा जारी किया था। उनके बेटे और बेटी दोनों की छवि भी खराब है। बेटे पर मेरठ के बीच बाजार में पिस्टल लहराकर फिरौती मांगने के आरोप हैं तो बेटी पर स्कूल में लड़कियों की पिटाई करने के आरोप लगे हैं। याकूब ने पेरिस में एक मैगज़ीन के आफिस पर हुए हमले को जायज़ ठहराते हुई उसका जश्न भी मनाया था।
सहारनपुर में बीजेपी के राधव लखनपाल की स्थिति मज़बूत दिखती है क्योंकि वहां का मतदाता पूरी तरह धार्मिक लाइन पर ध्रुवीकृत है। कांग्रेस से इमरान मसूद उम्मीदवार हैं जबकि गठबंधन का जो मुस्लिम प्रत्याशी है वह मेयर चुनाव भी हार चुका है लिहाजा मुस्लिम वोट इमरान के साथ एकजुट है जिसकी प्रतिक्रिया में सारे हिंदू वोट भाजपा की ओर जाएंगे, चाहे किसी भी जाति के हों। दलितों में वाल्मीकि भी बीजेपी को वोट दे रहे हैं। बीजेपी के यहां से सीट निकालने की एक और वजह यह है कि भीम आर्मी के चंद्रशेखर आज़ाद की रणनीति आखिरी समय में कांग्रेस को अपने काडरों का वोट डलवाना है। चंद्रशेखर भले ऊपर से गठबंधन को समर्थन करते दिख रहे हों, लेकिन रविवार को देवबंद में हुई महागठबंधन की रैली गवाह है कि भीम आर्मी के काडरों ने मायावती के भाषण देने के बीच में ही चंद्रशेखर के पोस्टर लहरा दिए थे। भीम आर्मी अपने सोशल मीडिया पर भी गठबंधन का प्रचार करती नहीं दिख रही है। इनकी योजना अपना वोट कांग्रेस को शिफ्ट करवाने की है।
कैराना सीट पर तबस्सुम हसन जीत जातीं बशर्ते वे नलके का चुनाव चिह्न नहीं छोड़तीं। जाटों को इस बात की दिक्कत है कि वे सपा से लड़ रही हैं, इसीलिए भाजपा और कांग्रेस में बंटेंगे लेकिन मलिकों की गठवाला खाप को छोड़कर बड़ा हिस्सा भाजपा के साथ ही जाएगा। गाजियाबाद में मौजूदा बीजेपी सांसद वीके सिंह की स्थिति पहले से ही मजबूत है और यहां की सीट भी बीजेपी के पलड़े में झुकी हुई है। कुल मिलाकर देखा जाए तो पहले चरण में पश्चिमी यूपी में भारतीय जनता पार्टी को कोई खास नुकसान होता नहीं दिख रहा है।
योगी और राणा का साझा राजपुताना
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ नाथ पंथ के गोरखपुर स्थित सबसे बड़े मठ गोरक्षनाथ पीठ के आधिकारिक महंत हैं। जिस पंथ से योगी दीक्षा लेते हैं, उसके बाहर उनके इष्ट देवता नहीं होते। उनके सारे शुभ काम अपने ही पंथ और मठ से शुरू होकर वहीं खत्म हो जाते हैं। यह सामान्य रीति है। योगी आदित्यनाथ ने होली पर रेनकोट पहनकर होली खेली, गुलाल मला और उसके तीन दिन बाद 24 मार्च, 2019 को लोकसभा चुनाव के लिए अपना प्रचार अभियान शुरू किया। अभियान शुरू करने से पहले आशीर्वाद लेने वह गोरखनाथ के दरबार में नहीं, बल्कि सहारनपुर में शाकुम्भरी देवी के पीठ गए। शाकुम्भरी देवी मंदिर राजपूतों का मंदिर है जहां दूसरी जातियां भी जाती हैं, लेकिन सिर्फ भक्ति भाव में या यूं कहें कि सिर्फ चढ़ावा चढ़ाने के लिए।
उत्तरप्रदेश के पश्चिमी द्वार पर बसे सहारनपुर शहर से करीब 26 मील उत्तर की तरफ शिवालिक की छोटी–छोटी पहाड़ियों के बीच शाकुम्भरी देवी का मंदिर है। सहारनपुर एक दौर में पुंडीर राजपूतों (पुरंदरों) की रियासत रहा है। यहां उनकी कुलदेवी शाकुम्भरी देवी का शक्तिपीठ स्थित है और आज भी यह पुंडीर राजपूतों का ‘प्राइवेट’ मंदिर माना जाता है, इसलिए यहां चढ़ने वाला सारा पैसा सहारनपुर के जसमौर गांव के पुंडीर वंश के सामन्त परिवार को जाता है। इस पीठ के तार राजस्थान के नागौर से जुड़ते हैं। वहां भी शाकुम्भरी देवी की एक पीठ है जो पुंडीरों और चौहानों की कुलदेवी हैं।
सुनने में यह अजीब लगे मगर सत्य यह है कि राजपूतों के गौरव और जातिगत श्रेष्ठता के आधार पर बनी हुईं संस्था, फेसबुक के पेज और व्हाट्सप्प ग्रुप के नए पोस्टर बॉय अजय बिष्ट उर्फ योगी आदित्यनाथ हैं। राजपूतों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए ही सूबे के मुख्यमंत्री ने अपने चुनाव प्रचार की शुरूआत 24 मार्च को शाकुम्भरी देवी की पूजा से की। नाथ पंथ से संन्यास की दीक्षा लेने वाले योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बनते ही अजय बिष्ट में तब्दील हो गए, राजपूत बन गए।
सहारनपुर से एक प्राइवेट बस में लगभग 40 किलोमीटर लंबी यात्रा कर हम शाकुम्भरी देवी के मंदिर पहुंचे थे। मंदिर ज़मीन की तहलटी से थोड़ा सी ऊपर एक पहाड़ी के निचले चपटे हिस्से पर बना हुआ है जिसके चारों और प्रसाद, चूड़ियों, श्रृंगार और बच्चों के खिलौनों की सैकड़ों कच्ची दुकानें जमी हुई हैं। पूछने पर पता चला कि मेले में दुकान लगाने के लिए ठेकेदार को पैसे देने पड़ते हैं और ठेकेदार का कमीशन कटकर चढ़ावे के पैसे की तरह यह पैसा भी जसमौर के सामन्त परिवार को जाता है।
वहां हमारी मुलाकात मंदिर के पुजारी से हुई जिसने बड़ी उत्सुकता से बताया, “योगी आदित्यनाथ जी ने अपने चुनाव प्रचार की शुरूआत मां शाकुम्भरी की पूजा करके की है। हर क्षत्रिय राजपूत अपने विजयी अभियानों पर निकलने से पहले मां शाकुम्भरी का आशीर्वाद जरूर लेता है। देख लेना, मां की कृपा से योगी जी जरूर विजयी होंगे।‘’ अपनी व्यस्तता के कारण पुजारी हमें माता की एक छोटी सी पुस्तक पकड़ाकर चले गए।
मंदिर में ही हमारी मुलाकात सहारनपुर जिले की राजपूत महासभा के दिनेश राणा से हुई। नाटे कद के दिनेश के मुंह पर लंबी और भारी मूंछें सजी हुई थीं। अभिवादन में “जय भवानी’’ और ‘’जय मां शाकुम्भरी’’ बोलकर उसने हमसे बातचीत करनी चाही। हमारी मंशा समझ आते ही दिनेश ने पहले हंसकर अपनी मूंछों पर ताव दिया, फिर बड़ी सहजता के साथ कहा, “देखो जी, राज वही करता हुआ अच्छा लगता है जिसे राज करना आता हो। राजपूत का तो मतलब ही होता है राज करने वालों के बेटे। योगी आदित्यनाथ आने के बाद राजपूतों में नया जोश तो आया ही है। जोश आये भी क्यों न, आखिर कितने सालों बाद कोई राजपूत मुख्यमंत्री चुनकर आया है। राजपूत के राज में होने का अलग ही मज़ा होता है। आप देख लीजिए, न्याय की गंगा प्रदेश में बह रही है। योगी जी ने सब चोर–उचक्कों, ठगों–डकैतों को मारकर प्रदेश में न्याय का राज़ यानी राजपूत राज़ कायम किया है।”
जिस तरह योगी आदित्यनाथ का सत्ता में आना दिनेश को उत्साहित करता है उसी तरह से सूबे के युवा भी अब योगी में अपना जातिगत गौरव देखने लगे हैं। कुछ साल पहले तक राजपूत सभाओं के पोस्टरों पर राजनाथ सिंह का कब्ज़ा था लेकिन अब उनकी जगह योगी ने ले ली है और राजनाथ सिंह को पोस्टरों में कहीं कोने में शिफ्ट कर दिया गया है या फिर पूरी तरह से हटा दिया गया है। इसका एक कारण यह भी है कि राजपूतों के आइकॉन/पोस्टर बॉय हमेशा से जवान मर्द रहे हैं, बूढ़े नहीं।
सहारनपुर के ही छुटमलपुर कस्बे के आसपास राजपूतों की चौबीसी (चौबीस गांव) पड़ती है। वहां भी पुंडीर गोत्र के राजपूत बसते हैं। छुटमलपुर से करीब 10 किलोमीटर दूर पुंडीर राजपूतों का एक बड़ा गांव बेहड़ा संदलसिंह पड़ता है। वहां हमारी मुलाकात विक्रम पुंडीर से हुई। हमें मिलते ही विक्रम ने बड़ी प्यार से कहा, “आओ हुकुम। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ‘हुकुम’ शब्द सुनना हमारे लिए बिल्कुल नया था। पूछने पर विक्रम कहते हैं कि राजपुताना भाषा बोलने का अपना ही मज़ा है। जब राजपुताना भाषा बोलते हैं तो हमें बड़ा गर्व महसूस होता है।
विक्रम को महसूस हो रहे गर्व की खुराक पिछले कई सालों से लगातार सोशल मीडिया पर दी जा रही हैं। फेसबुक से लेकर वॉट्सएप तक राजपूतों के नाम से बने समूहों में फैलाए जाने वाले जातिगत गौरव के संदेशों को ध्यान से देखें तो कुछ इसी तरह के शब्द हर जगह इस्तेमाल होते मिलेंगे: ‘बाई सा’, ‘बन्ना’, ‘हुकुम’, ‘क्षत्राणी’, ‘क्षात्र धर्म’, ‘जय मां भवानी’, ‘रॉयल राजपुताना’, इत्यादि।
शब्दों के प्रयोग से हटकर जब पुंडीर इतिहास पर बात शुरू होती है तो विक्रम अपनी चमकदार आखों में गौरव गाथा भरकर बताते हैं, “सहारनपुर के पुंडीर महाभारत कालीन पुंडक राजा के वंशज हैं जिसने कृष्ण भगवान को भी धमकाकर औकात में रहने की हिदायत दी थी। पुंडक राजा हरियाणा के पूंडरी कस्बे पर राज करता था। वहीं से हमारे वंशज आए हैं और यहां आसपास के गांवों में फैले हैं।”
विक्रम की यह मिथकीय गौरवगाथा बेशक ऐतिहासिक तथ्य पर न टिकी हो लेकिन इसमें जातिगत घृणा का प्रोपगेंडा जरूर तैर रहा है, जिसकी एक हल्की सी परत इस मिथक को कृष्ण भगवान और यादव जाति के अखिलेश से छूकर गुजरती है। विक्रम ने यह कहानी शेर सिंह राणा द्वारा आयोजित एक रैली में एक बुजुर्ग के मुंह से सुनी थी जिन्होंने अखिलेश यादव को ललकारते हुए पुंडक राजा के भगवान कृष्ण को धमकाने वाला यह किस्सा सुनाया था।
ज़मानत पर राजपुताने का हीरो
इस इलाके में जो राजपूतों का स्थापित नेता है वह है पंकज सिंह पुंडीर उर्फ शेर सिंह राणा। शेर सिंह राणा फूलन देवी की हत्या करने की वजह से उम्रकैद की सज़ा काट रहा है और पिछले कोई ढाई साल दिनों से ज़मानत पर बाहर है। हाल ही में शेर सिंह राणा ने राष्ट्रीय जनलोक पार्टी बनाई है जिसका मकसद ज्यादा से ज्यादा राजपूतों को राजनीति में लाना है। शेर सिंह राणा से फ़ोन पर बातचीत हुई। उन्होंने कहा, ‘’राजपूत राज करने के लिए बने हैं, मजदूरी करने के लिए नहीं। आरक्षण की वजह से राजपूत गरीब होते जा रहे हैं। खेती में कुछ निकलता है नहीं। ऊपर से छोटी सी जमीन के टुकड़ों पर आपस में सर और फुड़वा लेते हैं। इसलिए अब राजपूतों को राजनीति में सक्रिय होना चाहिए ताकि उनकी राज़ में भागीदारी बढ़ सके।‘’
शेर सिंह राणा ने पिछले दिनों अपनी नई पार्टी बनाने के बाद गाजि़याबाद, नोएडा, चंडीगढ़, करनाल आदि जगहों पर उसके दफ्तर खोले हैं। कुछ दिनों पहले राणा ने एलान किया था कि वे राष्ट्रीय जनलोक पार्टी से गौतमबुद्धनगर और करनाल सीट पर अपने प्रत्याशी उतारेंगे। पंजाब और हरियाणा के कई अखबारों में भी ऐसी खबर भी छपी। बाद में राजनीतिक सूलियतों के चलते उन्होंने यह योजना दरकिनार कर दी और चुन–चुन कर राजपूत प्रत्याशियों का प्रचार करने लगे।
दो साल पहले 5 मई को शबीरपुर में हुए दलितों पर हमलों का असली हीरो शेर सिंह राणा ही था। शबीरपुर से सिर्फ पांच किलोमीटर दूर पड़ने वाले गांव शिमलाना के इंटर कॉलेज में महाराणा प्रताप जयंती पर शेर सिंह राणा घोड़े पर सवार होकर पहुंचा था और वहां उपस्थित हज़ारों राजपूतों को धर्मयुद्ध छेड़ने की कसमें खिलाई थीं। उसी आयोजन में कई राज्यों से पहुंचे राजपूतों ने शबीरपुर के दलितों पर तलवारों और बमों से हमला किया था। इस हमले के बाद मीडियाविजिल ने शब्बीरपुर गांव से एक ज़मीनी रिपोर्ट की थी जिसमें हमले का विस्तार से वर्णन था।
इन दो वर्षों में शेर सिंह राणा ने काफी उपलब्धियां बटोरी हैं। उन्होंने एक किताब लिख मारी है। इसके अलावा उनके उुपर एक फिल्म भी बन रही है। गौरतलब है राणा को अक्टूबर 2016 में दिल्ली हाई कोर्ट से गीता मित्तल की अदालत से ज़मानत मिली थी। ज़मानत की शर्त यह थी कि राणा हर जून और दिसंबर के दूसरे सप्ताह रुड़की के थाने जाकर अपनी हाजिरी लगवाएंगे। अपना पता और मोबाइल नंबर पुलिस के पास अपडेट रखेंगे। इनके अलावा बेल ऑर्डर में और कोई बंदिश नहीं लगाई गई है। बेल ऑर्डर की प्रति नीचे देखी जा सकती है।
जाहिर है, तिहाड़ जेल से बाहर आने के बाद जितना साम्राज्य और प्रभावक्षेत्र राणा ने अपना बनाया, वह अभूतपूर्व और अविश्वसनीय है। यूपी से लेकर राजस्थान, मध्यप्रदेश, पंजाब, हरियाणा, गुजरात और बिहार आदि में वे राजपूतों की एक समानांतर सरकार चला रहे हैं। यूपी में उनके सिर पर खुद सजातीय मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ उर्फ अजय सिंह बिष्ट का हाथ है, इसे सहारनपुर में लगी होर्डिगों और पोस्टरों में आसानी से देखा जा सकता है। तकरीबन सभी पुलिस थानों में भी राजपूत जाति का वर्चस्व है, लिहाजा न कोई शिकायत करने वाला है और न कोई बोलने वाला।
इसका नतीजा यह हुआ है कि पिछले बीस दिनों के दौरान शेर सिंह राणा धड़ल्ले से चुनाव प्रचार और रैलियां कर रहे हैं। उनका काफिला निकलता है जो राजपूत गौरव के रीमिक्स गाने बजते हैं और राणा खुली जीप में लोगों का एक नायक की तरह अभिवादन करते हुए गुज़रते हैं। यह पश्चिमी यूपी के दुर्लभ नजारों में एक है। पिछले महीने राणा ने गौतमबुद्धनगर के नूरपुर गांव में एक विशाल जनसभा और रैली की थी। दो माह पहले राणा ने सहारनपुर में हिंदू–मुस्लिम राजपूत समाज का एक सम्मेलन आयोजित किया था जिसमें आए लोगों ने राजपूताना को बुलंद करने का वादा किया और ‘जय राजपूताना’ के नारे लगाए।
ध्यान रहे कि जब सहारनपुर में दलित विरोधी दंगे हुए थे, उस वक्त वहां के उच्च वर्ण वाले मुसलमानों की ओर से किसी किस्म का कोई प्रतिरोध देखने को नहीं मिला था। वहां के मुसलमान खुद इस बात को मानते हैं कि उनके पूर्वज राजपूत थे। इस धारणा ने शेर सिंह राणा का काम आसान ही किया है। दिलचस्प है कि हिंदू–मुस्लिम राजपूत भाईचारा सम्मेलन में शामिल युवाओं का यह मानना है कि दोनों धर्मों के मानने वालों की पूजा पद्धति तो विविध हो सकती है लेकिन इनके बीच राजपुताने की एकता होनी चाहिए। मुसलमानों के एक तबके को यह बात अपील कर रही है।
योगी और राणा की जुगलबंदी
ऊपर से देखने में सूबे के मुख्यमंत्री और शेर सिंह राणा के बीच कोई संबंध खोज पाना इतना आसान नहीं होगा। राणा की पार्टी के नाम में ‘’राष्ट्रवादी’’ शब्द को छोड़ दें तो न तो वे भारतीय जनता पार्टी का खुले तौर पर समर्थन करते हैं और न ही योगी को कभी उनके आयोजनों में देखा गया। इन दोनों को हालांकि एक डोर बेशक जोड़ती है। यह डोर सहारनपुर के शाकुम्भरी देवी पीठ से निकलती है जो राजपूतों की कुलदेवी है। दोनों की राजनीति यहीं आकर मिलती है और फिर समानांतर तरीकों से आगे बढ़ती है। एक ओर जनप्रतिनिधित्व की सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठे योगी आदित्यनाथ हैं तो दूसरी ओर अठारह साल पहले एक जनप्रतिनिधि की संसद के बाहर सरेराह हत्या करने वाला उम्रकैद सज़ायाफ्ता राणा। देखने में ये जितने दूर हैं, अपनी–अपनी सियासत में उतने ही पास हैं। इन दोनों की समानांतर सियासतों के बीच संजीव बालियान के भाई राहुल कुटबी जैसे छिटपुट लोग हैं जो महज अच्छी–बुरी घटनाओं का प्रबंधन कर रहे हैं। सहारनपुर से लेकर नागौर तक राजपुताने को दोबारा कायम करने की राजनीति बड़ी सहजता से चल रही है।
सुब्रमण्यम स्वामी ने कई साल पहले एक लेख में आरएसएस के हिंदू राष्ट्र का एजेंडा बताया था। उनके मुताबिक संवैधानिक हिंदू राष्ट्र बनने के बाद संसद में तीन सदन होंगे। पहला सदन होगा गुरु सभा, दूसरा क्षत्रिय सभा और तीसरा लोक सभा। मनोनीत सदस्यों वाले राज्यसभा की अवधारणा इसमें कहीं नहीं है। योगी से लेकर साक्षी महाराज, निरंजन ज्योति, रामदेव सहित राजस्थान के मठों के कई महंतों की राजनीतिक संलग्नता व सक्रियता को देखते हुए कहा जा सकता है देश के साधु–संत और बाबा लोगों से मिलाकर गुरु सभा का खाका तो मोटामोटी स्पष्ट है। सवाल उठता है कि ज़मानत पर बाहर चल रहे राजपूत नायक शेर सिंह राणा के साथ शुरू हुई अंतरराज्यीय राजपुताने की कवायद कुल मिलाकर एक क्षत्रिय सभा के खाके तक जाएगी?