कामकाजी स्वायत्ता को लेकर सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक के बीच संघर्ष कोई नया नहीं है. लेकिन हालिया टकराव इसलिए बड़ा हो गया है क्योंकि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार द्वारा भारतीय रिजर्व बैंक कानून, 1934 की धारा-7 के इस्तेमाल की बात आ रही है. इसका इस्तेमाल अर्थव्यवस्था में तरलता, एनबीएफसी को कर्ज देने और प्राॅम्पट करेक्टिव एक्शन से संबंधित है. इसके अलावा रिजर्व बैंक के सरप्लस को सरकार को दिए जाने पर भी विवाद है. हालांकि, वित्त मंत्रालय ने जो बयान जारी किया है, उसमें धारा-7 का कोई उल्लेख नहीं है. लेकिन रिजर्व बैंक के अंदर इसे लेकर काफी चर्चा चल रही है और इसे गर्वनर के कार्यक्षेत्र में दखल के तौर पर देखा जा रहा है.
तो फिर धारा-7 को लेकर इतनी चर्चा क्यों है? इस धारा के तहत सरकार के पास रिजर्व बैंक को निर्देश देने का अधिकार है लेकिन यह काम जनहित के मुद्दे पर गवर्नर से सलाह करके होना चाहिए. पहले से ही बैंकिंग क्षेत्र की कार्यकुशलता को लेकर चिंताएं बरकरार हैं. बैंकिंग संकट से यह पता चलता है कि कैसे सरकार के दखल से स्थितियां खराब होती हैं. सरकार ने इसके लिए कभी धारा-7 का इस्तेमाल नहीं किया. शेयरधारक के तौर पर अपने अधिकारों का इस्तेमाल करके सरकार ने बैंकों में शीर्ष पदों पर नियुक्तियों को प्रभावित करती है. ऐसी राजनीतिक नियुक्तियों के जरिए आए लोग सत्ताधारी दल के अनुकूल काम करते हैं. सरकारी पैसे के कुप्रबंधन के आरोपों के बीच 2019 के चुनावों को देखते हुए मौजूदा सरकार धारा-7 का इस्तेमाल करके अपना चेहरा बचाना चाहती है. रिजर्व बैंक पर तोहमत मढ़कर सरकार खुद को पाक साफ साबित करना चाहती है. इससे रिजर्व बैंक पर बैंकों पर अपनी पकड़ ढीली करने और अपने सरप्लस को सरकार को देने का भी दबाव बढ़ेगा जिससे सरकार चुनावी साल में लोकलुभावन काम कर सकेगी.
जब यह बात पहले भी साबित हो चुकी है कि स्वायत्ता सिर्फ आभासी है तो फिर रिजर्व बैंक की ओर से इस बार इतनी प्रतिक्रिया क्यों आ रही है? नोटबंदी के बाद रिजर्व बैंक ने 2014 से 2016 के बीच के सरप्लस सरकार को दे दिया. इससे रिजर्व बैंक ने अपने आपात कोष और संपत्ति विकास कोष में कुछ नहीं डाला पाया. 2017 में रिजर्व बैंक की ओर से सरकार को दिया जाने वाला सरप्लस 63 फीसदी पर पहुंच गया. बैंकिंग संकट के बीच इस बार यह लग रहा है कि रिजर्व बैंक के बड़े अधिकारियों से बैंकिंग नीति के बारे में भरोसे में नहीं लिया जा रहा है. आरबीआई कानून, 1934 की धारा-8.4 के तहत बैंक के केंद्रीय बोर्ड के सदस्यों को भारत सरकार ही नियुक्त करती है. इनमें गवर्नर और डिप्टी गवर्नर भी शामिल हैं. इनकी नियुक्ति, कार्यकाल, दोबारा नियुक्ति और हटाने से संबंधित निर्णय लेने का अधिकार भारत सरकार के पास है.
रिजर्व बैंक के गवर्नेंस के आसपास की जो राजनीति है उससे यह स्पष्ट है कि इसे राजनीतिक लोकप्रियता के दायरे के अंदर काम करना पड़ता है न कि आर्थिक कार्यकुशलता पर निर्भर होकर. इसलिए पूर्ण स्वायत्ता जैसी कोई चीज नहीं है. नव-उदारवादी व्यवस्था में बैंकिंग तंत्र सरकारों और राजनीतिक तौर पर महत्वपूर्ण निजी खिलाड़ियों के बीच आपसी सहमति के तहत काम करता है. बड़े कारोबारी घराने भले ही बैंकों का कर्ज नहीं चुकाकर डिफाॅल्टर बन रहे हों लेकिन उन्हें राजनीतिक दलों से लाभ मिलता रहता है. हालांकि, बैंकों के नाकाम होने की स्थिति में नुकसान को वितरित करने के लिए सरकारों को आम जमाकर्ताओं का साथ चाहिए होता है जो कि वोट बैंक भी है. सरकार अपने वोट बैंक को सही संकेत देने के लिए कानून बनाती है. इन कानूनों का क्रियान्वयन ऐसे किया जाता है जो लाभ लेने वालों के पक्ष में हो. ऐसी स्थिति में एक स्वतंत्र नियामक की भूमिका सिर्फ सरकार के राजनीतिक निर्णयों को ठीक से लागू करने की रह जाती है.
लेकिन वैश्विक बाजार में नियमन से संबंधित बदलते माहौल में रिजर्व बैंक के सामने यह चुनौती है कि वह अपनी नियमन से संबंधित छवि को सुधारे. खास तौर पर तब जब मुनाफा घट रहा हो, कमाई कम हो रही और निवेशकों में अविश्वास का माहौल हो. ऐसे में बैंलेंश शीट को ठीक करने के लिए जो कदम जरूरी हैं, वे आम तौर पर सरकार की वोट बैंक राजनीति के प्रतिकूल होते हैं. वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक के अधिकारियों के बीच जो खींचतान चल रही है उसमें वित्त मंत्री अरुण जेटली ‘जन हित’ की बात कर रहे हैं तो रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ‘वित्त बाजार के आक्रोश’ की बात कर रहे हैं. सरकार अपना बचाव करने के लिए रिजर्व बैंक को ढाल बना रही है तो बैंकिंग क्षेत्र की नाकामियों से अपना दामन बचाने के लिए रिजर्व बैंक ‘स्वायत्ता’ का कार्ड खेल रहा है.