skip to Main Content

सबरीमाला पर उदारपंथी दलीलों के खतरे

केरल के लिबरल लोगों को समझने के लिए सबरीमाला प्रकरण हमारा नया औज़ार हो सकता है। सबरीमाला विवाद पर कांग्रेस के सांसद शशि थरूर और पूर्व विदेश सचिव निरुपमा मेनन राव की दलीलों में निहित बौद्धिक खोखलापन एक बार निरीक्षण और पड़ताल की मांग करता है।

थरूर बडी खतरनाक बात कह रहे हैं कि ‘’संवैधानिक सिद्धांतों की अमूर्त्‍त तत्‍वों को भी सामाजिक स्‍वीकार्यता की परीक्षा से गुज़रना होता है।‘’ अधिवक्‍ता सुहरित पार्थसारथी इस पर कहते हैं, ‘’यह फैसला समानता के अमूर्त्‍त तत्‍वों पर आधारित नहीं था। इसके बजाय, यह फैसला संविधान द्वारा प्रदत्‍त अमूर्त्‍त गारंटियों को अर्थ प्रदान करता है।‘’ यदि तीन तलाक पर अदालत के फैसले के खिलाफ रूढि़पंथी मुसलमान सड़कों पर उतर आए, तो क्‍या थरूर उस पर भी पुनर्विचार करने की सलाह देंगे? मुझे तो इस बात का भय है कि यदि अयोध्‍या पर अदालती फैसला उनके मन मुताबिक नहीं रहा तो कल को वे किस पाले में खड़े होंगे।

सुप्रीम कोर्ट को अपनी राय कायम करने के लिए रहस्‍यमय तत्‍वों और प्रथाओं को संज्ञान में नहीं लेना चाहिए और वह ऐसा करता भी नहीं है। उसे लोक संस्‍कृति की बेशक फिक्र है लेकिन हर संस्‍कृति या आस्‍था को भारतीय संविधान की चलनी से होकर गुज़रना पड़ेगा। भारतीय संविधान इस अर्थ में एक सांस्‍कृतिक दस्‍तावेज़ है कि उसकी नीयत, उसके सिद्धांतों, उसकी घोषणाओं और दिशानिर्देशों के भीतर ही उस जनता का ताना-बाना निहित है जो मिलकर इस भूमि को रचती है। इसीलिए उसकी सीमाएं भी हमारी सामाजिक, सांस्‍कृतिक और राजनीतिक आपत्तियों से तय होती हैं। संविधान निर्माताओं ने मूलभूत अधिकारों के आईने में आदर्श भारत का अक्‍स देख पाने की उम्‍मीद की थी। वे और हम एक ऐसे भारत का सपना देखते हैं जहां हर किस्‍म का भेदभाव और अलगाव समाप्‍त हो जाएगा। संविधान कोई पत्‍थरदिल, भावनाहीन दस्‍तावेज़ नहीं है। यह एक ऐसी संजीदा कारीगरी है जिसके भीतर मनुष्‍य के उत्‍थान का उद्देश्‍य निहित है।

इसीलिए अदालत को भारतीय नागरिकों के प्रति पूरी सतर्कता, करुणा और सहानुभूति के साथ प्रतिक्रिया देनी चाहिए, खासकर उन्‍हें ध्‍यान में रखते हुए जो भेदभावपूर्ण व्‍यवहार का शिकार हैं और ऐसा करते हुए समाज के बहुसंख्‍य की उत्‍तेजना को दरकिनार कर देना चाहिए। इसे इस तरह से समझें कि यदि अयप्‍पा का आशीर्वाद लेने की प्रक्रिया में 10 से 50 वर्ष की ऐसी महिलाओं पर अन्‍यायपूर्ण पाबंदी आयद हो जाती हो जो उनके आशीष की आकांक्षी हैं, तो सबसे पहले उनके आशीर्वाद को ही कोने में रख देना होगा। हिंदू परंपरा में भक्ति केंद्रीय तत्‍व है। आराध्‍य देव के प्रति पूर्ण समर्पण से ज्‍यादा पवित्र कुछ नहीं होता। अयप्‍पा को इस ताकत के आगे झुकना ही होगा। सुप्रीम कोर्ट के 28 सितंबर के फैसले के यह अनुकूल भी होगा। वह एक अद्भुत फैसला था जिसने हमें अपने संविधान निर्माताओं की भव्‍य दृष्टि का अहसास कराया। जस्टिस डी.वाइ. चंद्रचूड़ ने उसी नज़रिये को इन शब्‍दों में सामने रखा कि ‘’महिलाओं को पूजा के अधिकार से वंचित करने के लिए धर्म को आड़ नहीं बनाया जा सकता है।‘’

कांग्रेस और थरूर केरल में खतरनाक बाज़ी खेल रहे हैं। समाज के एक तबके का दमन करने के लिए आप जो दलीलें दे रहे हैं, वही दलीलें जब बीजेपी देगी तब हल्‍ला मत करिएगा। आपका यह दोहरापन आगे बहुत भारी पड़ेगा।

थरूर की टिप्‍पणी के तुरंत बाद राव ने सिलसिलेवार कई ट्वीट किए। उन्‍होंने तर्क दिया कि हमें अयप्‍पा और उनकी पुरुष शुद्धिकरण, आत्‍मनियंत्रण व परिवर्जन की दुनिया को जस का तस छोड़ देना चाहिए। चौंकाने वाली बात यह है कि दलितों का मंदिर प्रवेश वर्जित किए जाने के पीछे वे उच्‍च जाति का वर्चस्‍व गिनाती हैं लेकिन सबरीमाला में महिलाओं को वर्जित किए जाने के पीछे वे अयप्‍पा की मिथकीय परंपरा गिनाते हुए उसे स्‍वीकार्य बताती हैं। क्‍या यह वही ‘पवित्रता’ नहीं है जो दलितों को मंदिरों में नैश्तिक ब्रह्मचर्य के नाम पर घुसने से रोकती है? आज भी रजस्‍वला महिलाओं को पूजाघरों में घुसने से रोका जाता है। इसे सही ठहराने और भय का माहौल कायम करने के लिए सकारात्‍मक/नकारात्‍मक ऊर्जा व शुद्धता के हवाई तर्क दिए जाते हैं, जो कि दरअसल हमारी भेदभावपूर्ण प्रथाओं, किंवदंतियों, सामाजिक कर्मकांडों, ग्रंथों और दस्‍तावेज़ों का परिणाम है।

राव ने आगे लिखा, ‘’तीर्थयात्रा के दौरान पुरुष अपने वर्ग और सामाजिक पदानुक्रम का अतिक्रमण कर के एक हो जाता है जबकि औरतों को एक दैवीय बहनापे में अलग छोड़ दिया जाता है।‘’ सभी जाति के लोग सबरीमाला जाते हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उससे जाति समाप्‍त हो जाती है। इस दलील के हिसाब से देखें तो फिर हर मंदिर ही जातिविहीन हुआ क्‍योंकि आज समाज के हर तबके के लोग पूजा-अर्चना और तीर्थ करते हैं। हम सब अच्‍छे से जानते हैं कि यह बात पूरी तरह से झूठी है। अधिकतर मंदिर अपनी परंपराओं, कर्मकांडों, नियंत्रण अधिकारों और संगठन के मामले में अनिवार्यत: जातिवादी हैं। और इस संदर्भ में ‘’बहनापा’’ तो पूरी तरह पितृसत्‍तात्‍मक है।          

वे अपनी दलीलों के केंद्र में अयप्‍पा के ब्रह्मचर्य को रखती हैं और यह भूल जाती हैं कि यदि अयप्‍पा को वे यह अधिकार दे रही हैं तो भक्‍त को भी उसकी प्रकृति पर सवाल खड़ा करने का उतना ही अधिकार है। बहुत जल्‍द ऐसा होगा कि हर धर्म के रूढि़पंथी और हिंदू कट्टरपंथी अलग-अलग संदर्भों में परंपरा के ऐसे ही तत्‍व गिनवाकर गलत को सही मनवाने लगेंगे। यह इत्‍तेफ़ाक नहीं है कि कट्टर इस्‍लामिक समूह भी अब सबरीमाला पर हो रहे प्रदर्शनों के पक्ष में उतर आए हैं।

अब चाहे जो हो, लेकिन थरूर और राव ने केरल के समाज में निहित जातिवाद और पितृसत्‍ता को उघाड़ कर रख दिया है। नारायण गुरु और अयंकलि जैसे समाज सुधारकों ने मलयाली समाज में गहरे जड़ जमाए इस जातिगत भेदभाव और अस्‍पृश्‍यता के खिलाफ संघर्ष किया था- आरक्षण की कामयाबी और सामाजिक विकास के सकारात्‍मक सूचकांक इस बात का सबूत हैं कि उन्‍होंने जाति प्रथा को पर्याप्‍त चोट पहुंचायी थी। इसके बावजूद अभी बहुत सा काम बाकी है, यह आज उच्‍च जातियों की ओर से मचाए जा रहे हो हल्‍ले से स्‍पष्‍ट हो रहा है। जातिवाद दरअसल हम सब के भीतर खुद को छुपाए रखता है और ऐसे ही मौकों पर निकल कर बाहर आ जाता है। पितृसत्‍ता और पुरुष वर्चस्‍व ही वह बुनियाद है जिस पर जाति अपना काम करती है। केरल इस मामले में अपवाद नहीं है।

थरूर ने जिस भ्रामक तरीके से सबरीमाला मुद्दे पर अपने पूर्वग्रहों को हवा देने की कोशिश की है, वह संविधान की उपेक्षा है। उन्‍हें अपने भीतर अवचेतन स्‍तर पर स्‍वीकृत जातिवाद और पितृसत्‍ता की खुद पड़ताल करनी चाहिए। सबरीमाला को मिथकीय स्रोत से पुरुष जगत के आत्‍मशुद्धिकरण का परिक्षेत्र बताने वाली राव को उन तमाम दूसरे क्षेत्रों पर नज़र डालनी चाहिए जहां औरतों ने चुनौती खड़ी की है और कामयाब रही हैं। औरतो को इन तमाम जगहों पर रोकने के लिए हमेशा से ही कोई न कोई पराभौतिक या सामाजिक व कर्मकांडीय बंदिशें मौजूद रही हैं। उच्‍च जाति की लिबरल नारीवादियों के लिए नारीवाद के विचार में सुविधाजनक कतर-ब्‍योंत कर चुनने और छांटने काम बड़ा आसान होता है।      

गतिविधि के हर क्षेत्र को नारीवादी प्रस्‍थान-बिंदु से प्रश्‍नांकित किया जाना चाहिए, फिर चाहे वह धर्म ही क्‍यों न हो। प्रतिबंधात्‍मक व्‍यवहार की पड़ताल होनी चाहिए। इतना तो तय है कि परमपिता ईश्‍वर भी यही चाहता होगा कि हम सब सवाल करने वाले संजीदा प्राणी बनें। हिंदू होने का कोई और अर्थ होता है क्‍या? 

(दि हिंदू से साभार)

Print Friendly, PDF & Email
Back To Top